आज जब युनिवर्सिटी से निकला तो मन में एक बात उमड़-घुमड़ रही थी की यार आज कुछ लिखना है.पर सबसे बड़ा ये प्रश्न यह था कि लिखूं क्या??अब कोई बहाना चलने वाला था नहीं अब तो बस लिखना ही है.वैसे तो दिमाग में हजारों ख्याल
उमड़ते- घुमड़ते रहेंगे लेकिन जब आज जरूरत है तो हर तरफ सन्नाटा...मेरा टिंकू जिया बहुत बेचैन है........
एकदम से मेरे दिमाग में आया क्यों न बात फिल्मों की की जाये.क्योंकि टिंकू हमारा सिनेमा का दीवाना भी है...और गाने का भी शौक़ीन है.वो भी धीमे-धीमे नहीं जोर-जोर से....
फिल्मे मनोरंजन का सबसे अच्छा तरीका होती हैं.तीन घंटे की सिनेमाई दुनिया में इंसान अपने सारे दर्दोंगम भूल डूब जाता है कल्पना के सागर में... लेकिन वर्गभेद यहाँ पर भी देखने को मिलता है. सिनेमा देखने वाला भी दो वर्गों में बंटा हुआ है अमीर-गरीब/उंच-नीच अमीरों की बात ही कुछ और है उनके पास पैसा है...और पैसा है तो जाहिर सी बात है. प्रोब्लम काफी हद तक कम होती हैं .लेकिन बेचारा टिंकू तो आम आदमी हैं...जिसको हर चीज़ मैनेज करना होता है कुछ भी करने से पहले अपना
बजट भी देखना होता है...
महंगाई के इस दौर में जहाँ आम आदमी के लिए सबसे बड़ी चुनौती रोटी,कपडा,मकान,शिक्षा,बनी हुई है अब ऐसे में टिंकू जिया सनेमा का दीवाना हो गया है तब तो बड़ी ‘मुश्किल बाबा बड़ी मुश्किल’...मुश्किल इसलिए कह रहा हूँ कि भाई!अब है मल्टीप्लेक्स का जमाना.छोटे मोटे सिनेमाघर या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर है.अब ऐसे में टिंकू को बेचारा होना ही पढ़ेगा...मल्टीप्लेक्स के इस दौर में १ शो देखने के लिए टिंकू के पास.नास्ता-वास्ता छोडकर कम से कम १५० रूपये होना ही चाहिए.टिंकू वह आम आदमी है जो रोज
१० -१२ घंटे काम करने के बाद बमुश्किल से १५० से २०० तक कमा पाता है...अब ऐसे में वो सिनेमा देखने की सोंचे तो???...टिंकू जो जोर-जोर से गाने का शौक़ीन है उसकी घिग्घी बांध जाती है..... वो मजबूर है या तो वो दिनभर की कमाई में सिनेमा देखे या फिर अपना खाना पीना करे ..और फेमिली को दे....
यह एक गंभीर मसला है हर उस टिंकू के लिए जो आम इंसान है.जिसके ऊपर जिम्मेदारी है खुद की और परिवार की.मनोरंजन के नाम पर बड़े-बड़े बिजनेसमैन सरकार से सस्ती दरों पर जमीन लेते हैं...मल्टीप्लेक्स बनवाते हैं...उद्देश्य तो इनका मनोरंजन ही होता है लेकिन टिकट के दाम इतने ज्यादा होने का कारण ये आम आदम के बजट के बाहर होता है.हालाँकि अब मल्टीप्लेक्स वाले अपनी औंकात पर आ रहे हैं.और मार्निंग शो का चलन भी शुरू हो गया है.जहाँ हफ्ते में कुछ दिन सस्ती दरों पर फिल्म दिखाया जाता है....मसलन ५० से ६० रूपये..लेकिन समस्या का ये पूरा समाधान नहीं है..आम आदमी को बाजार से निकल कर बाजार बनाने वालों को समझ आनी चाहिए की उनका सिनेमा जब मल्टीप्लेक्स से बेआबरू होकर निकलता है तो आम आदमी की कड़ी कमाई के बल पर सराहा जाता है.सरकार को चाहिए की कम लागत वाले सनेमा घरों को प्रोत्शाहित करे ताकि हर टिंकू सनेमा देख सके...और जोर-जोर से गा सके.....
आशीष शुरुवात बहुत अच्छी थी पढकर मज़ा आना शुरू हुआ ही था कि सारा मज़ा किरकिरा हो गया आप ये निर्धारित ही नहीं कर पाए कि कहना क्या एक साथ कई विचारों को लेकर आप आगे बढे लेकिन सबको सम्हाल नहीं पाए अभी सिर्फ इतना करो छोटे विचारों पर काम करो किसी को सुझाव मत दो और ज्यादा दार्शनिकता मत डालो एक बार आपकी लेखनी गति पकड़ लेगी फिर कोई समस्या नहीं रहेगी जैसे चाहना वैसे लिखना उम्मीद करता हूँ आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे अंत आपके जज्बे को सलाम बातें तो सभी करते हैं लेकिन आप कक्षा के उन छात्रों में से एक है जो करने की कोशिश जरुर करते हैं यही बात आपको औरों से अलग कर देती है काम अच्छा हुआ या बुरा इसका फैसला वक्त को करना है पर महत्वपूर्ण है काम हुआ
ReplyDeleteआभार
मुकुल
शुक्रिया गुरु जी!आगे से मै इस बात का ख्याल रखूंगा....
ReplyDeleteshuruat bhut achchi hai...
ReplyDeletePholo ki mala ghutne ke lie sahi rang ke phoolo ka chayan zarrori hota hai !
ReplyDeleteYou did a good effort but please follow Mukul Sir. He is abolutly right.
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