Wednesday, October 12, 2011

महात्मा गाँधी के ग्रामस्वराज्य के सन्दर्भ में मनारेगा समीक्षा तथा अपेक्षाएँ



भारत गावों का देश है. महात्मा गाँधी अक्सर कहा करते थे कि भारत कि आत्मा गावों में बसती है. ये बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि तब थी. शायद इसी वजह से गाँधी जी ग्रामस्वराज्य के हिमायती थे. उनका मानना था की ग्राम समुदायों को अपना कार्य चलाने के लिए अधिक से अधिक स्वायत्ता प्रदान की जाये.
गाँधी जी ने अहिंसा के आधार पर संगठित समाज कि रूपरेखा खीची थी. यह समाज गावों में बसे हुए समुदायों का होगा, जिसमे ऐक्षिक सहयोग के आधार पर लोग प्रतिष्ठित और शांतिमय जीवन बिताएंगे. वे आत्मनिर्भर होंगे. प्रत्येक गावों में एक गणतंत्र होगा, जिनमे पंचयतों को पूर्ण शक्तियां प्राप्त होंगी और जो अपनी आवश्यकताओं को स्वं पूरा कर लेगी. अपनी सुरक्षा भी स्वम इन्ही का काम होगा. व्यक्ति अपने सामजिक कर्तव्यों को निभाएगा. गाँधी जी कहते थे कि सच्ची लोकशाही केन्द्र में बैठे हुए कुछ लोग नही चला सकते हैं. वो तो गाव के लोगो द्वारा चलाई जानी चाहिए. ताकि सत्ता के केंद्र बिंदु में गाव रहे.
गाँधी जी सत्य और अहिंसा पर आधारित ऐसे राज्य कि स्थापना का स्वप्न पाल रहे थे जिसमे केंद्रित एवम शक्तिमूलक व्यस्था का कोई स्थान नही होगा. गांधीजी का कहना था कि शक्ति का केन्द्रीयकरण बहुत सी बुराइयों से भरा हुआ है. यह जीवन को जटिल बनाता है. इसका सबसे बुरा पहलु यह है कि यह हिंसा पर आधारित है तथा इसको बिना शाक्ति के कायम नही रखा जा सकता. और विकेन्द्रीकरण व्यक्ति को अनेक अवसर प्रदान करके उनके मानसिक नैतिक और आध्यात्मिक विकास करने में सहायक होता है.
अतः राज्य में शक्ति का विकेन्द्रीकरण होगा. विकेन्द्रीकरण दो प्रकार का होगा आर्थिक तथा राजनितिक. आर्थिक विकेन्द्रीकरण का तात्पर्य देश में बड़े उद्योगों के लगने के बजाये छोटे छोटे उद्योग लगाये जाएँ. कुटीर उद्योगों कि स्थापना हो. ग्रामोद्योग को बढ़ावा मिले. तथा राजनितिक विकेन्द्रीकरण का तात्पर्य ग्राम स्वराज्य है. गाँधी जी ने यंग इण्डिया में दिए गये एक साक्षात्कार में कहा था कि स्वराज्य का अर्थ सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने का सतत प्रयास है, यह सरकार विदेशी हो या राष्ट्रीय ग्रामस्वराज्य महात्मागांधी की उस व्यापक सोच का प्रतिनिधित्व करता है जिससे वास्तविक लोकतंत्र और विकेन्द्रित समाज कि स्थापना हो सकती है. ग्राम स्वराज्य यानी ऐसी सामाजिक व्यस्था जिसमे ग्रामीणों के जीवन की सुरक्षा और उसके स्तर कर उन्नयन का मार्ग प्रसस्त हो ..           
ग्राम स्वराज्य के विषय में जितना सोचा गया है. उतना किया नही गया. गाँधी जी ग्राम पंचायतों के विषय में अपने विचार तो रख दिए थे किन्तु उन्हें इसके प्रयोग करने का मौका नही मिला था. आजादी के बाद से ही ग्राम पंचायतों को शक्ति देने की बात चल रही थी लेकिन यह इसकी चाल महज सियासी सियाशी थी. संविधान में जगह मिली १९९२ में जब इसे ७३ वें संविधान के रूप में स्वीकार कर लिया गया. और इस दिशा में ठोस शुरुवात हुई २००५ में जब ७ सितम्बर को भारत सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) नामक योजना का शुभारंभ किया गया.
२ अक्टूबर २००९ को योजना का नाम बदलकर नाम महात्मा गाँधी के नाम पर कर दिया गया. तब से यह योजना महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम(मनरेगा) के नाम से जाना जाने लगा.  मनरेगा काफी हद तक महात्मा गाँधी की आदर्श राज्य की कल्पना जिसमे उन्होंने शक्ति के विकेन्द्रीकरण की बात कही थी के दोनों पहलुओं(आर्थिक विकेन्द्रीकरण तथा राजनितिक विकेन्द्रीकरण) पर खरा उतरता है तथा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया कि मजबूती में यह अधिनियम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह पंचायती राज संस्थाओं को केंद्रीय भूमिका प्रदान करता है मसलन योजना निर्माण, निगरानी और अनुपालन में. गाँधी जी ऐसा ही चाहा करते थे इसके साथ-साथ ये अधिनियम ग्रामीणों के रोजगार की भी निश्चित व्यस्था भी करता है..
भारत गावों का देश है. गावों की लगभग ८५% जनसँख्या या तो भूमिहीन हीन है या फिर लोग बहुत छोटे भूमि के स्वामी हैं. अधिकाँश किसान आत्मनिर्भर नही हैं. यानी वे वर्षभर का भोजन अपने खेतों से प्राप्त नही कर सकते. गावों में रोजगार के साधन भी बहुत सीमित है लगभग ना के बराबर. इस मजबूरी की वजह से ग्रामीणों का शहरों की तरफ पलायन तेजी से हो रहा है. ऐसे में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के क्रियान्वयन से ग्रामीणों में एक आशा कि ज्योति जगी है. मनारेगा अंतररास्ट्रीय स्तर पर ऐसा पहला क़ानून है जिसमे बड़े पैमाने पर रोजगार गारंटी प्रदान की जाती है. यह ग्रामीणों को  मुफ्त में नही, बल्कि काम के लिए वेतन देती है. यह इन्हें निर्भर नही बल्कि आत्मनिर्भर बनाती है. इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस योजना में हर गाव के इक्षुक सभी स्त्री पुरुष को सालभर में १०० दिन का रोजगार निश्चित रूप से मिलता है. इसके लिए उन्हें ११२ रूपये प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी दी जाती है.
महात्मा गाँधी की कल्पना ग्राम स्वराज्य जिसमे उन्होंने लोगो के सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने, आत्मनिर्भर होने की बात कही थी. मनारेगा के अंतर्गत वो सारी बाते आ जाती हैं. इसमें सड़क निर्माण, ग्राम सुंदरीकरण, मिटटी संरक्षण, वृक्षारोपण, कुओं कि खुदाई, जल संवर्धन परियोजनाएं, वाटरशेड डेवलपमेंट स्कीम, सिचाई परियोजनाओं के निर्माण जैसी योजनाओं में इसकीं व्यस्था है, इसके तहत लोग अपने समजिक दायित्यों कि पूर्ती तो करते ही हैं साथ ही साथ आय भी करते हैं.
मनारेगा अब तक सरकार द्वारा चलाई गई सभी योजनाओ में सबसे ज्यादा सफल मानी जाती है. लेकिन भ्रस्टाचार का दीमक यहाँ भी लग गया है. अभी हाल ही में देश के नियंत्रक और महा लेखक और परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट ने इस योजना को लक्ष्य कि प्राप्ति में विफल और भ्रस्ताचार का शिकार बताया..इसकी वर्तमान स्तिथि पे एक शेर याद आया कि...

खुसबू खुसबू का हिसाब हो चुका है..
और फूल अभी खिला ही नही.

मनारेगा में कुछ इस तरह से भ्रस्टाचार हो रहे हैं....

१-जॉब कार्ड किसी और का और काम कोई और व्यक्ति कर रहा है.
२-बिना कार्य किये हुए ही मस्टररोल स्वीकृत कर अपने लोगों को मजदूरी का भुक्तान कर देना.
३-चहेते लोगों को टास्क कम देना.
४-मजदूरी के भुक्तान में कमीशन लेने का आरोप.
५-बैंको में तमाम दिक्कतें.
६-जॉब कार्ड में फोटो बदलकर धोकधारी.
७- ग्राम प्रधानों द्वरा अपने चहेतों को मेट व अन्य सामान्य काम सौपना जबकि यह काम वृद्ध या फिर विकलांगों को सौपने के निर्देश दिए गये हैं.
इसके आलावा मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों को मिलने वाली सुविधाएँ  भी संदेह के घेरे में हैं. योजना में सुविधाओं से सम्बंधित स्पस्ट दिशा निर्देश जारी किये गये हैं, लेकिन इनका पालन बहुत कम ही होता है योजना के अंतर्गत कराये जा रहे कार्यस्थलों पर ना तो प्राथमिक चिकित्सा व्यस्था होती है और न ही पीने का साफ़ पानी काम करने वाली महिलाओं के बच्चों के लिए उचित व्यस्था तो बहुत दूर कि बात है.जबकि इसका स्पस्ट निर्देश नियमावली में है. शायद इसीस लिए प्रसिद्द विचारक ज्यां द्रेज का ने कहा ‘यह योजना कागजी तौर पर तो पूरी तरह सफल है लेकिन वास्तविक तौर नही’.
बहरहाल इस योजना के दो बड़े लाभ हुए पहला इसने मजदूरों का पलायन रोका तथा दूसरा उनको घर में रहते हुए भरण पोषण के अवसर मुहैया कराये .लेकिन इसने कुछ अहम सवाल भी पैदा किये हैं. मसलन  कार्यरत मजदूर और उनकी भविष्य की पीढ़ियों का क्या होगा ? क्या सिर्फ १०० दिन के रोजगार से उनके परिवार का भरण पोषण हो जायेगा? उम्मीद है आने वाले समय में सरकार इस सन्दर्भ में कोई ठोस कदम उठाएगी.
यह योजना ग्रामीण भारत कि तस्वीर बदल सकती है लेकिन इसके लिए जरूरी है इसमें मूलभूत सुधारों के साथ सही क्रियान्वन. जरूरत मंदों तक यह योजना अभी ठीक से नही पहुच पाई है. अभी भी जनजातीय ,पिछड़े और पहाड़ी इलाकों में समस्या बरक़रार है.. अगर जल्द ही मनारेगा में हो रहे भ्रस्टाचार से निपटने का कोई ठोस उपाय नही किया गया तो सरकार कि ये महत्वाकांछी योजना असफल हो जायेगी. और बापू के ग्राम स्वराज्य का स्वप्न अधूरा ही रह जायेगा..
 

Saturday, August 20, 2011

एक ही जूनून,खत्म हो भ्रस्टाचार


   जय हिंद!..इन्कलाब जिंदाबाद!अन्ना तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं..अन्ना नही ये आंधी है देश के दुसरे गांधी हैं....अन्ना अहा! विरोधी स्वाहा!...अपने जूनून  को मै ज्यादा देर रोक नही पाया...और शामिल हो लिया रैली में..देखते देखते सकड़ों कि तादाद में यूनिवर्सिटी के छात्र रैली के समर्थन में परिसर में इकट्ठा हो गए..मै अन्ना हू के स्टीकर चिपकाये हुए..हाथो में स्लोगन लिखे बोर्ड..विरोध प्रदर्शन का सबका अपना अपना तरीका लेकिन मकसद एक..अन्ना के समर्थन में आवाज बुलंद करना.. जगह जगह प्रदर्शन और नारे बाजी की  गई..एक कहावत मै अक्सर सुनता हूँ कि कारवाँ बढ़ता गया लोग जुड़ते गए वो बात यहाँ व्यवहार में भी देखने को मिली..क्या ऑटो वाले..पैदल रहगुजर..ठेले वाले..सभी हमारे सुर में सुर मिला रहे थे..इस दौरान मीडिया कि अच्छी खासी कवरेज भी हो रही थी. हम जोश पूरे जोश में नारा लगा रहे थे मानो हमारी आवाज सीधे हिन्दुस्तान कि हुक्मरानों के कानो में जा रही हो..काफी हद तक हम गलत नही थे क्यू कि हमे मीडिया कवर कर रही थी..धीरे धीरे जोश थोडा धीमा हुआ तो मैंने भीड़ से जरा हट कर भीड़ को समझने कि कोशिश करने लगा..क्या वास्तव में जितने लोग इस रैली में शामिल हैं वो सीरियस हैं या फिर ऐवें ही...कई सवाल मेरी मन में उठे..जिनमे से एक जवाब मुझे तुरंत ही मिल गया... जिस ओर जवानी चलती है उस ओर जमाना चलता है...कुछ लोग इसलिए शामिल हुए थे क्यू कि उनके दोस्त या फिर सीनियर ने कहा कि चल यार चलते हैं..
खैर भ्रस्ताचार के खिलाफ और आना के समर्थन में आयोजित इस रैली में तमाम लोग शामिल हुए..रैली में शामिल होने का उनका व्यक्तिगत कारण चाहे जो रहा हो हो..वो चाहे जिस भी तरह से शामिल हुए हों..लेकिन उनकी आवाज़ उनके इरादे बुलंद थे..और ये आवाज देश के पचास करोड से ज्यादा और एक ही बिरादरी के लोगों (युवा) की है..जिसे गाहे बगाहे सरकार को सुनना ही पड़ेगा.मै मनीष और दीपू तीनो शामिल थे रैली में..रैली करीब १२ बजे विश्वविद्यालय परिसर से निकली और बोर्ड ऑफिस चौराहे होते हुए २ बजे वापस कैम्पस आ गए..आज क्लास चलनी नही थी सो हम चाय के लिए बाहर आये..बतकूचन का दौर चल रहा था..ऐसे में मनीष ने कहा यार हमारे इस मुहीम का सरकार पर कोई असर हो या न हो लेकिन मुझ पर तो हो गया...मेरा सर दर्द कर रहा था ....ठीक हो गया..मनीष का सर दर्द तो ठीक हो गया लेकिन देखते हैं समाज का सर दर्द कब ठीक होता है?और आन्ना हजारे समेत तमाम हिंदुस्तानिओं को एक सशक्त लोकपाल कब मिलता है...उम्मीद है जल्द ही...अन्ना आप को शत शत नमन आपकी वजह से आज पूरा देश तिरंगे में रंग गया है और सारे भेद भाव भुला  एक साथ खड़ा है...

उस खास पल की कुछ तस्वीरें आपके लिए पेश कर रहा हूँ...
                     


Friday, August 19, 2011

नमस्कार !
       एक लंबे विराम के बाद आज फिर अपने मन की बात को ब्लॉग पर लिखने  की कवायद शुरु कर रहा हू. अभी तक तमाम जरूरी और गैर जरूरी कार्यों की वजह से ब्लॉग जगत से दूर था.आज कल आज कल इसी मे पूरा मई,जून,जुलाई बीत गया अगस्त भी बीतने को है..इस दौरान बहुत सी चीजें बदली मसलन मै लखनऊ से भोपाल आ गया..स्नातक कि पढाई पूरी कर लिया और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम जनसंचार विश्वविद्यालय,भोपाल आ गया अपने परास्नातक की पढाई करने...

       इस बेहद खूबसूरत शहर,सज्जन लोगों और प्रतिष्ठित विश्विद्यालय से जुडी हुई कई बातें है जो आप से शेयर करनी हैं..बारी बारी करूँगा..बस थोडा सा इन्तजार कीजिये..

!!जय हिंद!!                  

Monday, April 18, 2011

प्रधानमन्त्री जी आप को जन भावनाओं का भी ख्याल रखना चाहिए....


प्रधानमन्त्री पर अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि वे स्वविवेक से नही बल्कि रिमोट कनट्रोल से चलते हैं. और रिमोट संप्रग अध्यक्ष सोनिया गाँधी के पास है. उनकी ही मर्जी का पालन प्रधानमंत्री का एक मात्र परमकर्त्तव्य और परमधर्म है. ये बात निराधार नही है. इस बात का गवाह है नई दिल्ली का जंतर-मंतर धरना स्थल. भ्रस्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे आमरण अनसन पर थे. उनके साथ प्रत्यक्ष रूप से हजारों व अप्रत्यक्ष रूप लाखों करोड़ों लोग जुड़े थे. सिर्फ इस देश  में रहने वाले लोग ही नही बल्कि विदेशों में रहने वाले भारतीय जन भी इस मुहीम से जुड़े थे. लेकिन केंद्र सरकार दो तीन दिनों तक ऐसा व्यवहार करती रही जैसे उसे न तो अन्ना हजारे कि फिक्र है और न ही उनके साथिओं और समर्थकों की. जब जनमानस के भारी दबाव के चलते जब संप्रग का सिंहासन डोलने लगा तब सोनिया गाँधी कि संवेदनशीलता जगी. फिर संवेदनशीलता का यह प्रवाह प्रधानमंत्री तक पंहुचा. वह तुरंत हरकत में आये. और आनन-फानन में जननायक बन चुके अन्ना हजारे कि मांग को फौरी तौर पर मान लिया गया.

लोकपाल विधेयक की दशा-दिशा तय करने के लिए मंत्रिओं और गैर सरकारी सदस्यों वाली साझा समिति के गठन कि अधिसूचना जारी कर दी गई. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोक की जीत हुई और तंत्र विवश हो घुटनों पर आ गिरा.इस सम्पूर्ण घटनाक्रम के दौरान एक बात एक बात स्वतःसिद्ध हो गई कि प्रधानमंत्री जी संप्रग अध्यक्ष सोनिया गाँधी द्वारा नियंत्रित रिमोट द्वारा ही चलते हैं. आज के युग में स्वामिभक्ति और वफादारी में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह का कोई सानी नही है. इनके इस समर्पण को हमारा सलाम. लेकिन दुःख इस बात का है कि इस समर्पण में प्रधानमंत्री यह भूल गए कि वह इस देश के प्रधानमंत्री हैं न की कांग्रेस पार्टी और संप्रग के. हालांकि देश के विकाश में मनमोहन सिंह के व्यक्तिगत योगदान को भुलाया नही जा सकता.बात तब की है जब वह सन १९९१ में नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में वित्त मंत्री बने. सन् १९९१  में जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत डावांडोल थी और भारत दिवालिएपन के कगार पर था. वो प्रख्यात अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को अपनी कैबिनेट में वित्त मंत्री बनाकर ले आए जिस पर कई लोगों को हैरानी भी हुई. लेकिन मनमोहन सिंह ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारा बल्कि उदारीकरण की राह प्रशस्त की और भारतीय बाज़ार को खोल दिया. यही वजह है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह को भारत में आर्थिक उदारीकरण का जनक माना जाता है.

इसके पहले तक भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वैसे वित्त मंत्री बनने से पहले भी उनका नाम लोगों के लिए नया नहीं था. वित्त मंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह भारत के केंद्रीय बैंक- भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर थे और उनका नाम नोटों पर रहा करता था. १९९६ में नरसिंह राव के सत्ता से जाते-जाते भारतीय अर्थव्यवस्था न केवल पटरी पर आ गई बल्कि उसने गति भी पकड़नी शुरू कर दी. जब सन् २००४ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो सरकार की कमान मनमोहन सिंह को सौंपी गई. सत्ता कि अपनी पहली पारी में मनमोहन सरकार ने जनहित(किसानों की कर्जमाफी, छठा वेतन आयोग, ग्रामीण विकास रोजगार योजना आदि) के जो कदम उठाये थे उसके बदले जनता ने कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका दिया. लेकिन दूसरी पारी में मनमोहन सरकार घपले घोटालों व भ्रस्टाचार के आगे बैकफुट पर नजर आ रही है. इस बात से जनता में हताशा और निराशा का संचार हो गया. देश में सरकारी तंत्र, व्यवसाइयों, और नेताओं कि तिकड़ी चलते भ्रस्टाचार अपने चरम पर पहुँच गया. यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा की सरकार हरेक काम के लिए रिश्वत का रेट क्यूँ तय नही कर देती. बावजूद इसके सरकार में न तो भारस्टाचार से लड़ने की न तो ईक्षा दिखी और न ही शक्ति. ऐसे में अन्ना हजारे ने भ्रस्टाचार के खिलाफ क्रांति का आगाज किया. अन्ना कि आवाज गूँज बन गई. और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया. और लोकतंत्र दो भागों बट गया. लोक और तंत्र. तंत्र के मुखिया मनमोहन. लोक के मुखिया अन्ना हजारे. लोक के मुखिया ने लोक में नई ऊर्जा और विशवास का संचरण किया. तंत्र के मुखिया ने लोक की भावनाओं को आहत किया. खैर अंत भला तो सब भला. लेकिन प्रधानमंत्री को परिवार और पार्टी से आगे निकल कर देश के १२१ करोड जनता कि भावनाओं का भी ख़याल रखना चाहिए.        
               

Sunday, April 3, 2011



हो अंतर्मन में तुम्ही प्रिये
तुम्हे भूलें भी तो कैसे?
हो जीवन ज्योति तुम्ही प्रिये
ये ज्योति भुझाऊ कैसे?
जीवन ये सुमन तुमसे ही है
तुमसे है सारी ऋतुएं.
तुम बिन जीवन मलमास है
ऋतुराग सुहाए कैसे.
कहना है तुम्हारा, जाओ भूल मुझे
हो जाओ अपने प्रेम विरुद्ध
पर अफ़सोस
मुझे माफ करना
जिद्दी है अपना प्रेम प्रिये
इसे समझाऊ भी तो कैसे
हो अंतर्मन में तुम्ही प्रिये
तुम्हे भूलूं भी तो कैसे..
दुनिया निष्ठुर दिल निश्चल है..
दिल की मानू या दुनिया की सुनूं .  
तुम संग थी
अपनी हर बात प्रिये
ज़ज्बात भुलाऊ कैसे?
तुम्हे भूलूं भी तो कैसे
तुम्हे भूलूं भी तो कैसे
हो जीवन ज्योति तुम्ही प्रिये
ये जीवन ज्योति बुझाऊ कैसे.
   

Thursday, March 10, 2011

बेबसी मस्जिद के मीनारों को तकती रह गयी..






कुछ तस्वीरें हमारे सामने हैं....पहली ये जो कतार में बैठे लोग हैं...हाथ में कटोरा लिए, और लबपे बिलकुल प्रोफेसनल दुआ सजाये हुए हैं. अगर आप किसी लड़की/लड़के के साथ हैं तो फिर ये आपकी जोड़ी उससे मिला देते हैं.चाहे वो आपकी बहन/भाई/दोस्त ही क्यों न हो..अगर आप अकेले हैं और स्टूडेंट टाइप के हैं तो ये आप को भरोसा दिलाते हैं कि ऊपर वाले कि रहमत से आप की जोड़ी बन जायेगी. आपको सुन्दर लड़की/लड़का मिलेगी मिलेगा.. लेकिन बदले में आप इनके कटोरे में खनक पैदा करें...

अपने कटोरे का वजन बढ़ाने के लिए ये अपने ग्राहकों को तरह तरह के प्रलोभन देते हैं मसलन खूब तरक्की करो ..पैसा कमाओ ...लक्ष्मी धन का भंडार भरें...अच्छे नम्बर से पास हो ...अच्छी दुल्हन/दूल्हा मिले वैगेरह-वैगरह....अगर इसपर भी नही माने तो इक और लालच...गरीब,दुखियारे कि मदद करो बाबा/भगवान तुम्हारी मदद करेगा...अगर आप इस झांसे में नही आये तो...इनकी दुआ को बददुआ तब्दील होते देर नही लगती...और दबी जुबान से ...ब्ला ब्ला ब्ला..
आखिर ब्ला ब्ला क्यों न करे. सवाल पापी पेट का जो ठहरा.इनमे से ज्यादातर हट्टे-कट्टे हैं..जो मेहनत से कोई काम कर सकते हैं और कमा सकते हैं...और उससे अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं...तो फिर ये भिक्षावृत्ति क्यूँ करते हैं..जबकि उन्हें इस काम में तरह तरह के कमेन्ट सुनने पड़ते हैं गालियाँ सुननी पड़ती हैं?फिर भी अपने.ज़मीर को खूँटी पर टांग हाथ में कटोरा लिए निकल पड़ते हैं अपने-अपने बिजनेस पर...
(यहाँ पर भिक्षावृत्ति को बिजनेस इस लिए कहा जा रहा है क्यूँ की कुछ लोगों की तो मजबूरी होती है पर अब ज्यादातर लोगों का पेशा बन गया है ) 



दूसरी तस्वीर इस बुजुर्ग की..जो अपने बिजनेस पर हैं...जो अपनी दूकान सजाये बैठा हुआ है..उम्र करीब ७५ वर्ष..नाम भगत..पेशे से ये मोची. इक बूढी पत्नी..समेत सात लोगों का खर्चे का बोझ इनके ऊपर हैं...दिन के १२ बजने को हैं लेकिन अभी तक बोहनी नही हुई है...इन्हें अभी अपनी पहली बोहनी का इन्तजार है...इनकी आँखे रास्ते से गुजरने वाले हर बंदे को आशा से देख रही हैं.....कोई तो ग्राहक आये..जिसके जूते चमका कर(मेहनत कर) ये अपना तथा अपने परिवार के लिए दो जून कि रोटी का इंतजाम कर सके..दिन भर काम कर बमुश्किल से ५० -६० रूपये कमा पाते हैं...लोग इस रस्ते से गुजरते जा रहे हैं...किसी की  नजर इस मजबूर पर नही पड़ रही है..भगत से कुछ कदम बैठे भिखारियों के कटोरों में सिक्कों का वज़न बढ़ता जा रहा है लेकिन भगत की अभी तक बोहनी नही हुई..भगत हट्टे–कट्टे नही हैं. लेकिन उम्र के इस पड़ाव में होकर भी हान्ड़तोड़ मेहनत जरूर कर रहे हैं...इस मेहनत का नतीजा आप के सामने हैं...
लोग भिक्षावृत्ति क्यों कर रहे हैं? इस बात का उत्तर शायद मिल ही गया......
इस लेख को लिखते समय लगातार मेरे दिमाग में मुन्नवर राना के ये अल्फाज गूँज रहे हैं...


बेबसी मस्जिद के मीनारों को तकती रह गयी  
और मस्जिद भी वफादारों की तकती रह गयी...




Tuesday, March 8, 2011

आखिर सरकार चाहती क्या है ?




आज सुबह का समाचार पत्र पढ़ रहा था.पहली खबर मोटे मोटे अक्षरों में ... ‘पी.जे.थामस की नियुक्ति ख़ारिज’थामस जी अब तक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद कि शोभा बढा रहे थे.और केंद्रीय सत्ता के काफी खासम-खास माने जाते हैं...तभी तो इनकी कुर्सी बचाने के लिए केन्द्रीय सत्ता ने अपनी पूरी दम लगा दी थी.थामस को बचाने में एक से बढ़ कर एक दलीलें दे थी...लेकिन आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने दूध का दूध और पानी का पानी कर ही दिया...और थामस महोदय के चारों खाने चित्त हो गए..थामस खुद तो चले गए लेकिंन साथ ही केंद्र सरकार की लुटिया डुबोते गए..
समझ नही आ रहा कि केंद्र सरकार चाहती क्या है?
पी जे थामस कि नियुक्ति को लेकर विपक्ष ने आवाज भी उठाई थी इसके बावजूद उन्हें देश के इस महत्वापूर्ण पद पर बैठाया गया .सिर्फ यही नही अभी कुछ दिन पहले टू जीस्पेक्ट्रम घोटाले की पोल खुली तब भी  केंद्र सरकार ने ऐसा ही रवैया अपनाया था। वह तरह-तरह के कुतर्क देकर यह साबित करने की कोशिश करती रही कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई गड़बड़ी नहीं हुई।आखिरकार उस मामले में भी असलियत लोगों के सामने आ ही गई.काले धन के मामले में सरकार की काहिली जग जाहिर है...
इन सारी बातों से ये साफ़ जाहिर होता है कि दागदार अतीत वाले अधिकारी को जान बूझ कर केंद्रीय सतर्कता आयुक्त बनाया गया..टू जी स्पेक्ट्रम मामले में भी देश को गुमराह करने कि कोशिश की गई.देश कि जनता जवाब चाहती है आखिर ऐसा क्यूँ किया गया?
आई नेक्स्ट (माय व्यू) में ७ मार्च को प्रकाशित.



Monday, March 7, 2011

ये सपनों को पंख लगते हैं.














ये सपनों को पंख लगते हैं.
जो भटके हम, राह दिखाते हैं.
चाहे हो पढाई का टेनसन
या फिर हो कोई प्रोब!
हर वक्त हमारी हेल्प के लिए,राजी रहते हो आप!
इतनी उलझन
फिर भी नो टेनसन,
हम सब का भार उठाते हैं.
हर प्रोब को दिखा के ठेंगा
बस ऐसे ये मुस्काते हैं..
ये अपने मुकुल सर हैंआशी
शिक्षा की ज्योति जलाते हैं....

Saturday, March 5, 2011

न हम होते तो क्या होता ?

हम न होते तो क्या होता ?..शायद ये धरती न होती...आसमान न होता...न नदियाँ 
होती ...न झरने होते ....न सूरज उगता...न शाम होती..न शीला जवान होती और न 
ही मुन्नी बदनाम होती.....धरती का नामों निशान न होता...भाई धरती का 
आस्तित्व भी तो हमी से है.अगर हम न होते तो धरती का बैलेंस गड़बड़ा जाता और 
धरती कब कि पलट चुकी होती..हमी से इंसानियत का नाम जिंदा है...और हामी से 
हैवानियत का रोशन घरौंदा है...आप सोच रहे होंगे भला मेरे होने, न होने से इन सब 
का क्या वास्ता???
वास्ता क्यूँ नही है जनाब?...अगर हम न होते तो भला हम कैसे जान पाते इन सारी 
चीजों के बारे में या फिर कैसे महसूस कर पाते उन सारी बातों को जिनका जिक्र मैंने 
ऊपर किया है..अब हम हैं तभी जान रहे हैं कि ये सारी चीजे भी हैं...लेकिन बात का 
असली मुद्दा जो है वो ये है कि हम न होते तो क्या होता????देखने/सुनने में तो 
बड़ा ही हल्का प्रश्न लगता है ये लेकिन जब मै इस बारे में लिखने बैठा तो मेरी बत्ती 
गुल हो गई....अब तक सिर्फ दूसरी चीजों या लोगों के बारे में सोचा करता था कि ये 
होता तो क्या होता ...वो न होता तो क्या होता .लेकिन अब तक ये नही सोचा था 
कि हम न होते तो क्या होता....हम अपने जीवन में ज्यादा ज्यादा से ज्यादा समय 
दूसरों के बारे में आलतू-फालतू ही खाफाते रहते हैं..लेकिन अपने बारे कभी ये ठीक से 
नही सोचते कि भाई हामारा आस्तित्व क्या है? हम दुनिया को किस तरह से 
कंट्रीब्यूट कर रहे हैं...सिर्फ बतकूचन में ही ज्यादा से ज्यादा टाइम गवांते हैं...
हर चीज का अपना आस्तित्व होता है..चाहे वह तिनका हो या पहाड...मनुष्य हो या 
पशु...नदियाँ हो या फिर सागर ...और सभी इक दुसरे से कही न कहीं प्रभावित होते 
हैं...इस आधार पर मै भी यह कह सकता हूँ कि अगर हम न होते तो तो कुछ लोग 
जरूर प्रभावित होते...कुछ खुश होते तो कुछ ज्यादा खुश होते और कुछ के दुःख और 
परेशानी का सबब भी मै होता..कहते हैं हर चीज का अपना दायरा होता है.जिसमें वह 

प्रभावशाली होता है...मेरे भी दायरे में जो लोग हैं वो जरूर मुझसे प्रभावित होते...

हालंकि मै ये दावे के साथ नही कह सकता क्यूँकि वक्त अपने साथ कई विकल्प लेकर 

चलता है...मै नही तो कोई और सही...जिंदगी कि गाडी चलती ही रहती है...लेकिन 

इक बात है..जो सोलह आने सच है वो यह कि अगर गुरु जी आप न होते तो शायद 

हम ब्लॉग पर ना होते...
   
  

तुम



 
              
                
                  इक न इक दिन
                 तुम आओगी
                मुझे एतबार था
                 तुम मेरी होगी
             हर पल मेरे साथ होगी
                यह मेरा प्रेम था
                   आज
             तुम मेरे अनुभूति में हो
                    मेरी
             उदासी में इक मुस्कान हो
                   आज
              यह मेरा जीवन है..

Friday, February 18, 2011

खास दिल चाहिए?...


हेल्लो दोस्त
प्यार का मौसम अपने पूरे शबाब पर है.हर दिल को एक दिल कि तलाश है.किसी कि तलाश खत्म हो चुकी है तो किसी 
कि नही .और वो भटक रहे हैं..एक खास दिल कि तलाश में उस दिल कि तलाश में जो अपनी धडकन कि लय उसके 
धडकन कि लय से मिला सके .जिसमे अपनेपन का एहसास हो,जो सुख दुःख में साथ हो ....



यूँ तो इन दिनों दिल का बाजार
(बाजार इस लिए चूँकि आज 
कल प्यरा में जजबात से ज्यादा जेब महत्व रखता है) 
काफी गर्म है..अगर आप थोडा सा फिट हैं तो मामला हिट 
समझिए.आप के लिए कदम कदम पर दिल के तोहफे पेश 
किये जा सकते हैं....लेकिन आपको अगर खास दिल कि 
तलाश है तो ऐसा दिल पाने के लिए थोड़े सब्र कि जरूरत होती है..क्यूँ कि
               हर किसी को जगह मिलती नही किसी के दिल में
               किस्मत वालों को पनाह मिलती है किसी के दिल में
प्यार के इस गुलाबी मौसम में हर तरफ प्यार का खुमार सर चढ के बोल रहा है..हर कोई सच्चे दिल का वेट कर रहा है...
                          
प्यार आयेगा.. 
   उसके आते ही 
       आसमान पर  
           गुलाबी बादल छायेंगे.
                 खुशिओं कि बारिश होगी..
                         और सारी धरती  
                             प्यार की बारिस में सराबोर हो जायेगी....

एक समस्या यहाँ आ जाती है हर किसी को सच्चा दिल चाहिए.उन्हें दुसरे दिल में सच्चाई, इमानदारी, मोहब्बत,  
मासूमियत, रहमदिली जैसे गुणों कि चाह होती है...और मजे कि बात यह कि दूसरा भी यही चाह रखता है...दोनों कि 
चाह तो एक होती है लेकिन ये गुण सिर्फ वे दूसरों में ही चाहते हैं खुद के लिए जरूरी नही समझते हैं...असली लोचा तो 
लोचा यहीं पर हो जाता है...
इस दुनिया में हर चीज को टिकाऊ व अच्छा बनाने का कोई न कोई नुस्खा इजाद कर लिया गया है लेकिन प्यार भरा 
और सच्चा दिल पाने का कोई ठोस उपाय नही हो पाया है...
हर मा बाप को अपने बच्चे में सरवन कुमार वाला दिल चाहिए.
हर पति को अपने पत्नी में सावित्री वाला दिल चाहिए.
बच्चों को मा बाप का दोस्ती भरा दिल चाहिए.
तो हर पत्नी को पति में प्रेमी वाला दिल चाहिए.
हर प्रेमिका को अपने प्रेमी में श्री कृष्ण वाला दिल चाहिए तो हर प्रेमी को रह वाला दिल चाहिए..
पर अफ़सोस न कोई श्री कृष्ण जैसा दिल रखना चाहता है और न ही कोई राधा सामान दिल कि मालकिन बनना चाहती 
है...
पत्नी के दिल को पति को कोसने के आलावा कुछ नही आता पति के दिल को गुस्सा व अनदेखी करने के आलावा कुछ 
नही आता.कहने का मतलब बस इतना है कि हर किसी को दुसरे का दिल ,एक आदर्श रूप में चाहिए .अपने दिल में चाहे
जिस कदर का लालच, बेवफाई, क्रूरता और चालाकी भरी हो पर दुसरे के दिल में मिठास होना चाहिए समर्पण होना चाहिए.
इतने बतकूचन का सिर्फ इतना सा मतलब है कि आज हर किसी को आदर्श दिल चाहिए .सच्चा प्यार चाहिए..जो सिर्फ 
उनके लिए समर्पित रहे वफादार रहे सच्चा रहे...पर बदले में वे????? लेकिन भईया ऐसा कहाँ होता है एक हाथ से ताली 
थोड़े ही बजती है...आदर्श दिल पाने का सिर्फ एक ही रास्ता है अपने अपने दिल को पूरे जतन के साथ सवारें-सुधारें सच्चा 
बनाइये.जैसा दिल चाहिए ठीक वैसा दिल अपना बनाइये..तभी जाकर आपको खास दिल पाने कि चाहत पूरी होगी...जरूर 
पूरी होगी...   


       

Thursday, February 17, 2011

जिंदगी ,बोले तो सबसे बड़ी गुरु....



प्रसिद्ध विद्वान अरस्तु ने कहा था कि मनुष्य एक सामजिक जानवर है.मनुष्य भला जानवर कैसे हो सकता है.हमारे पास सोचने कि छमता है..आविष्कार करने कि छमता है . सीखने कि छमता है . हम भला हम जानवर कैसे हो सकते हैं. जानवर तो ऐसा नही कर सकते हैं...तो फिर क्या सोच इस महान विद्वान ने ये बात कही कि मनुष्य सामाजिक जानवर होता है....
जरा गौर करिये हममें और जानवरों में क्या फर्क है...हम हममें सोचने छमता होती है.क्या जानवरों में नही होती ? हम सीख सकते हैं..जानवरों में भी सीखने कि छमता होती है.हम अपनी सुविधा के लिए तमाम आविष्कार कर सकते है ..जानवर भी अपनी सुविधा के लिए आविष्कार कर लेते हैं..हम हम दुःख दर्द खुशी प्यार का अनुभव कर सकते है जानवर भी करते है.हम संत्त्नोत्पत्ति करते है जानवर भी करते हैं...जब सब कुछ सामान है तो आखिर क्या चीज है जो हम मनुष्यों को जानवरों से अलग करती है???
......ये हैं हमारे संस्कार,अच्छे बुरे का फर्क,सिर्फ अपना ही नही अपितु औरों का भी ख्याल रखना,अदब,लिहाज,और समाज निर्माण में रचनात्मक सहयोग...जिसे हम मनुष्यता या इंसानियत भी कह सकते है.यही इंसानियत ही हमें जानवरों से अलग बनाती है.
हमें जानवर से इसान बनाने का काम करते हैं हमारे गुरुजन.जो जिंदगी के हर मोड पर अपनी भूमिका निभाते है और हमें इंसान बनाते है....आप सोच रहे होंगे कैसे? तो भाई जरा पीछे मुड के देखो..जब इस दुनियां में आये थे तब क्या सूट बूट पहन कर आये थे??क्या खाना है?? क्या बोलना है ??आप को पता था ! आप को चलना आता था?? नही न ! ये सब है जिसने सिखाया वो हैं हमारे पहले गुरुजन हमारे माता-पिता..फिर हम थोड़े बड़े हुए स्कूल जाना शुरू किया वह हमें हाथ पकड़ कर लिखना सिखाया गया..पढ़ना सिखाया गया.मैनर सिखया गया...ये सिलसिला कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी..फिर जॉब या बिजनेस तक चलता रहता है.जीवन के हर मोड पर जब हम बिखराव महसूस करते है...तब जो शख्सियत हमें सवारती है..वो गुरु ही है ...
हम सब कि जिंदगी में गुरुजनों का बड़ा योगदान होता है.

माँ हमारा पहला गुरु है.
पिता और माता द्वारा दिए गए संस्कार हमारे जीवन को सही दिशा देते हैं.
स्कूल और कॉलेज के गुरु ज्ञान के दरवाजे हमारे लिए खोलते हैं.

लेकिन जिंदगी से बड़ी युनिवर्सिटी कोई नही जिसका हर दिन उगने वाला सूरज हमें कुछ न कुछ नया देता है और हम अपने संस्कार के आधार पर उसे बना या बिगाड सकते हैं....

हमारे मुकल सर का भी यही मानना है..सर भी कहते हैं बेटा जिंदगी सबसे बड़ी गुरु है इसके शागिर्द बनो जीवन खुद में संगीत बन जायेगी और तुम रॉक करोगे..आप का क्या कहना है?