भारत गावों का देश है. महात्मा गाँधी अक्सर कहा करते थे कि भारत कि आत्मा गावों में बसती है. ये बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि तब थी. शायद इसी वजह से गाँधी जी ग्रामस्वराज्य के हिमायती थे. उनका मानना था की ग्राम समुदायों को अपना कार्य चलाने के लिए अधिक से अधिक स्वायत्ता प्रदान की जाये.
गाँधी जी ने अहिंसा के आधार पर संगठित समाज कि रूपरेखा खीची थी. यह समाज गावों में बसे हुए समुदायों का होगा, जिसमे ऐक्षिक सहयोग के आधार पर लोग प्रतिष्ठित और शांतिमय जीवन बिताएंगे. वे आत्मनिर्भर होंगे. प्रत्येक गावों में एक गणतंत्र होगा, जिनमे पंचयतों को पूर्ण शक्तियां प्राप्त होंगी और जो अपनी आवश्यकताओं को स्वं पूरा कर लेगी. अपनी सुरक्षा भी स्वम इन्ही का काम होगा. व्यक्ति अपने सामजिक कर्तव्यों को निभाएगा. गाँधी जी कहते थे कि सच्ची लोकशाही केन्द्र में बैठे हुए कुछ लोग नही चला सकते हैं. वो तो गाव के लोगो द्वारा चलाई जानी चाहिए. ताकि सत्ता के केंद्र बिंदु में गाव रहे.
गाँधी जी सत्य और अहिंसा पर आधारित ऐसे राज्य कि स्थापना का स्वप्न पाल रहे थे जिसमे केंद्रित एवम शक्तिमूलक व्यस्था का कोई स्थान नही होगा. गांधीजी का कहना था कि शक्ति का केन्द्रीयकरण बहुत सी बुराइयों से भरा हुआ है. यह जीवन को जटिल बनाता है. इसका सबसे बुरा पहलु यह है कि यह हिंसा पर आधारित है तथा इसको बिना शाक्ति के कायम नही रखा जा सकता. और विकेन्द्रीकरण व्यक्ति को अनेक अवसर प्रदान करके उनके मानसिक नैतिक और आध्यात्मिक विकास करने में सहायक होता है.
अतः राज्य में शक्ति का विकेन्द्रीकरण होगा. विकेन्द्रीकरण दो प्रकार का होगा आर्थिक तथा राजनितिक. आर्थिक विकेन्द्रीकरण का तात्पर्य देश में बड़े उद्योगों के लगने के बजाये छोटे छोटे उद्योग लगाये जाएँ. कुटीर उद्योगों कि स्थापना हो. ग्रामोद्योग को बढ़ावा मिले. तथा राजनितिक विकेन्द्रीकरण का तात्पर्य ग्राम स्वराज्य है. गाँधी जी ने यंग इण्डिया में दिए गये एक साक्षात्कार में कहा था कि “स्वराज्य का अर्थ सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने का सतत प्रयास है, यह सरकार विदेशी हो या राष्ट्रीय” ग्रामस्वराज्य महात्मागांधी की उस व्यापक सोच का प्रतिनिधित्व करता है जिससे वास्तविक लोकतंत्र और विकेन्द्रित समाज कि स्थापना हो सकती है. ग्राम स्वराज्य यानी “ऐसी सामाजिक व्यस्था जिसमे ग्रामीणों के जीवन की सुरक्षा और उसके स्तर कर उन्नयन का मार्ग प्रसस्त हो ..”
ग्राम स्वराज्य के विषय में जितना सोचा गया है. उतना किया नही गया. गाँधी जी ग्राम पंचायतों के विषय में अपने विचार तो रख दिए थे किन्तु उन्हें इसके प्रयोग करने का मौका नही मिला था. आजादी के बाद से ही ग्राम पंचायतों को शक्ति देने की बात चल रही थी लेकिन यह इसकी चाल महज सियासी सियाशी थी. संविधान में जगह मिली १९९२ में जब इसे ७३ वें संविधान के रूप में स्वीकार कर लिया गया. और इस दिशा में ठोस शुरुवात हुई २००५ में जब ७ सितम्बर को भारत सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) नामक योजना का शुभारंभ किया गया.
२ अक्टूबर २००९ को योजना का नाम बदलकर नाम महात्मा गाँधी के नाम पर कर दिया गया. तब से यह योजना महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम(मनरेगा) के नाम से जाना जाने लगा. मनरेगा काफी हद तक महात्मा गाँधी की आदर्श राज्य की कल्पना जिसमे उन्होंने शक्ति के विकेन्द्रीकरण की बात कही थी के दोनों पहलुओं(आर्थिक विकेन्द्रीकरण तथा राजनितिक विकेन्द्रीकरण) पर खरा उतरता है तथा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया कि मजबूती में यह अधिनियम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह पंचायती राज संस्थाओं को केंद्रीय भूमिका प्रदान करता है मसलन योजना निर्माण, निगरानी और अनुपालन में. गाँधी जी ऐसा ही चाहा करते थे इसके साथ-साथ ये अधिनियम ग्रामीणों के रोजगार की भी निश्चित व्यस्था भी करता है..
भारत गावों का देश है. गावों की लगभग ८५% जनसँख्या या तो भूमिहीन हीन है या फिर लोग बहुत छोटे भूमि के स्वामी हैं. अधिकाँश किसान आत्मनिर्भर नही हैं. यानी वे वर्षभर का भोजन अपने खेतों से प्राप्त नही कर सकते. गावों में रोजगार के साधन भी बहुत सीमित है लगभग ना के बराबर. इस मजबूरी की वजह से ग्रामीणों का शहरों की तरफ पलायन तेजी से हो रहा है. ऐसे में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के क्रियान्वयन से ग्रामीणों में एक आशा कि ज्योति जगी है. मनारेगा अंतररास्ट्रीय स्तर पर ऐसा पहला क़ानून है जिसमे बड़े पैमाने पर रोजगार गारंटी प्रदान की जाती है. यह ग्रामीणों को मुफ्त में नही, बल्कि काम के लिए वेतन देती है. यह इन्हें निर्भर नही बल्कि आत्मनिर्भर बनाती है. इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस योजना में हर गाव के इक्षुक सभी स्त्री पुरुष को सालभर में १०० दिन का रोजगार निश्चित रूप से मिलता है. इसके लिए उन्हें ११२ रूपये प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी दी जाती है.
महात्मा गाँधी की कल्पना “ग्राम स्वराज्य” जिसमे उन्होंने लोगो के सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने, आत्मनिर्भर होने की बात कही थी. मनारेगा के अंतर्गत वो सारी बाते आ जाती हैं. इसमें सड़क निर्माण, ग्राम सुंदरीकरण, मिटटी संरक्षण, वृक्षारोपण, कुओं कि खुदाई, जल संवर्धन परियोजनाएं, वाटरशेड डेवलपमेंट स्कीम, सिचाई परियोजनाओं के निर्माण जैसी योजनाओं में इसकीं व्यस्था है, इसके तहत लोग अपने समजिक दायित्यों कि पूर्ती तो करते ही हैं साथ ही साथ आय भी करते हैं.
मनारेगा अब तक सरकार द्वारा चलाई गई सभी योजनाओ में सबसे ज्यादा सफल मानी जाती है. लेकिन भ्रस्टाचार का दीमक यहाँ भी लग गया है. अभी हाल ही में देश के नियंत्रक और महा लेखक और परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट ने इस योजना को लक्ष्य कि प्राप्ति में विफल और भ्रस्ताचार का शिकार बताया..इसकी वर्तमान स्तिथि पे एक शेर याद आया कि...
“खुसबू खुसबू का हिसाब हो चुका है..
और फूल अभी खिला ही नही.”
मनारेगा में कुछ इस तरह से भ्रस्टाचार हो रहे हैं....
१-जॉब कार्ड किसी और का और काम कोई और व्यक्ति कर रहा है.
२-बिना कार्य किये हुए ही मस्टररोल स्वीकृत कर अपने लोगों को मजदूरी का भुक्तान कर देना.
३-चहेते लोगों को टास्क कम देना.
४-मजदूरी के भुक्तान में कमीशन लेने का आरोप.
५-बैंको में तमाम दिक्कतें.
६-जॉब कार्ड में फोटो बदलकर धोकधारी.
७- ग्राम प्रधानों द्वरा अपने चहेतों को मेट व अन्य सामान्य काम सौपना जबकि यह काम वृद्ध या फिर विकलांगों को सौपने के निर्देश दिए गये हैं.
इसके आलावा मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों को मिलने वाली सुविधाएँ भी संदेह के घेरे में हैं. योजना में सुविधाओं से सम्बंधित स्पस्ट दिशा निर्देश जारी किये गये हैं, लेकिन इनका पालन बहुत कम ही होता है योजना के अंतर्गत कराये जा रहे कार्यस्थलों पर ना तो प्राथमिक चिकित्सा व्यस्था होती है और न ही पीने का साफ़ पानी काम करने वाली महिलाओं के बच्चों के लिए उचित व्यस्था तो बहुत दूर कि बात है.जबकि इसका स्पस्ट निर्देश नियमावली में है. शायद इसीस लिए प्रसिद्द विचारक ज्यां द्रेज का ने कहा ‘यह योजना कागजी तौर पर तो पूरी तरह सफल है लेकिन वास्तविक तौर नही’.
बहरहाल इस योजना के दो बड़े लाभ हुए पहला इसने मजदूरों का पलायन रोका तथा दूसरा उनको घर में रहते हुए भरण पोषण के अवसर मुहैया कराये .लेकिन इसने कुछ अहम सवाल भी पैदा किये हैं. मसलन कार्यरत मजदूर और उनकी भविष्य की पीढ़ियों का क्या होगा ? क्या सिर्फ १०० दिन के रोजगार से उनके परिवार का भरण पोषण हो जायेगा? उम्मीद है आने वाले समय में सरकार इस सन्दर्भ में कोई ठोस कदम उठाएगी.
यह योजना ग्रामीण भारत कि तस्वीर बदल सकती है लेकिन इसके लिए जरूरी है इसमें मूलभूत सुधारों के साथ सही क्रियान्वन. जरूरत मंदों तक यह योजना अभी ठीक से नही पहुच पाई है. अभी भी जनजातीय ,पिछड़े और पहाड़ी इलाकों में समस्या बरक़रार है.. अगर जल्द ही मनारेगा में हो रहे भ्रस्टाचार से निपटने का कोई ठोस उपाय नही किया गया तो सरकार कि ये महत्वाकांछी योजना असफल हो जायेगी. और बापू के ग्राम स्वराज्य का स्वप्न अधूरा ही रह जायेगा..
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