प्रधानमन्त्री पर अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि वे स्वविवेक से नही बल्कि रिमोट कनट्रोल से चलते हैं. और रिमोट संप्रग अध्यक्ष सोनिया गाँधी के पास है. उनकी ही मर्जी का पालन प्रधानमंत्री का एक मात्र परमकर्त्तव्य और परमधर्म है. ये बात निराधार नही है. इस बात का गवाह है नई दिल्ली का जंतर-मंतर धरना स्थल. भ्रस्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे आमरण अनसन पर थे. उनके साथ प्रत्यक्ष रूप से हजारों व अप्रत्यक्ष रूप लाखों करोड़ों लोग जुड़े थे. सिर्फ इस देश में रहने वाले लोग ही नही बल्कि विदेशों में रहने वाले भारतीय जन भी इस मुहीम से जुड़े थे. लेकिन केंद्र सरकार दो तीन दिनों तक ऐसा व्यवहार करती रही जैसे उसे न तो अन्ना हजारे कि फिक्र है और न ही उनके साथिओं और समर्थकों की. जब जनमानस के भारी दबाव के चलते जब संप्रग का सिंहासन डोलने लगा तब सोनिया गाँधी कि संवेदनशीलता जगी. फिर संवेदनशीलता का यह प्रवाह प्रधानमंत्री तक पंहुचा. वह तुरंत हरकत में आये. और आनन-फानन में जननायक बन चुके अन्ना हजारे कि मांग को फौरी तौर पर मान लिया गया.
लोकपाल विधेयक की दशा-दिशा तय करने के लिए मंत्रिओं और गैर सरकारी सदस्यों वाली साझा समिति के गठन कि अधिसूचना जारी कर दी गई. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोक की जीत हुई और तंत्र विवश हो घुटनों पर आ गिरा.इस सम्पूर्ण घटनाक्रम के दौरान एक बात एक बात स्वतःसिद्ध हो गई कि प्रधानमंत्री जी संप्रग अध्यक्ष सोनिया गाँधी द्वारा नियंत्रित रिमोट द्वारा ही चलते हैं. आज के युग में स्वामिभक्ति और वफादारी में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह का कोई सानी नही है. इनके इस समर्पण को हमारा सलाम. लेकिन दुःख इस बात का है कि इस समर्पण में प्रधानमंत्री यह भूल गए कि वह इस देश के प्रधानमंत्री हैं न की कांग्रेस पार्टी और संप्रग के. हालांकि देश के विकाश में मनमोहन सिंह के व्यक्तिगत योगदान को भुलाया नही जा सकता.बात तब की है जब वह सन १९९१ में नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में वित्त मंत्री बने. सन् १९९१ में जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत डावांडोल थी और भारत दिवालिएपन के कगार पर था. वो प्रख्यात अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को अपनी कैबिनेट में वित्त मंत्री बनाकर ले आए जिस पर कई लोगों को हैरानी भी हुई. लेकिन मनमोहन सिंह ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारा बल्कि उदारीकरण की राह प्रशस्त की और भारतीय बाज़ार को खोल दिया. यही वजह है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह को भारत में आर्थिक उदारीकरण का जनक माना जाता है.
इसके पहले तक भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वैसे वित्त मंत्री बनने से पहले भी उनका नाम लोगों के लिए नया नहीं था. वित्त मंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह भारत के केंद्रीय बैंक- भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर थे और उनका नाम नोटों पर रहा करता था. १९९६ में नरसिंह राव के सत्ता से जाते-जाते भारतीय अर्थव्यवस्था न केवल पटरी पर आ गई बल्कि उसने गति भी पकड़नी शुरू कर दी. जब सन् २००४ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो सरकार की कमान मनमोहन सिंह को सौंपी गई. सत्ता कि अपनी पहली पारी में मनमोहन सरकार ने जनहित(किसानों की कर्जमाफी, छठा वेतन आयोग, ग्रामीण विकास रोजगार योजना आदि) के जो कदम उठाये थे उसके बदले जनता ने कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका दिया. लेकिन दूसरी पारी में मनमोहन सरकार घपले घोटालों व भ्रस्टाचार के आगे बैकफुट पर नजर आ रही है. इस बात से जनता में हताशा और निराशा का संचार हो गया. देश में सरकारी तंत्र, व्यवसाइयों, और नेताओं कि तिकड़ी चलते भ्रस्टाचार अपने चरम पर पहुँच गया. यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा की सरकार हरेक काम के लिए रिश्वत का रेट क्यूँ तय नही कर देती. बावजूद इसके सरकार में न तो भारस्टाचार से लड़ने की न तो ईक्षा दिखी और न ही शक्ति. ऐसे में अन्ना हजारे ने भ्रस्टाचार के खिलाफ क्रांति का आगाज किया. अन्ना कि आवाज गूँज बन गई. और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया. और लोकतंत्र दो भागों बट गया. लोक और तंत्र. तंत्र के मुखिया मनमोहन. लोक के मुखिया अन्ना हजारे. लोक के मुखिया ने लोक में नई ऊर्जा और विशवास का संचरण किया. तंत्र के मुखिया ने लोक की भावनाओं को आहत किया. खैर अंत भला तो सब भला. लेकिन प्रधानमंत्री को परिवार और पार्टी से आगे निकल कर देश के १२१ करोड जनता कि भावनाओं का भी ख़याल रखना चाहिए.
इसके पहले तक भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वैसे वित्त मंत्री बनने से पहले भी उनका नाम लोगों के लिए नया नहीं था. वित्त मंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह भारत के केंद्रीय बैंक- भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर थे और उनका नाम नोटों पर रहा करता था. १९९६ में नरसिंह राव के सत्ता से जाते-जाते भारतीय अर्थव्यवस्था न केवल पटरी पर आ गई बल्कि उसने गति भी पकड़नी शुरू कर दी. जब सन् २००४ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो सरकार की कमान मनमोहन सिंह को सौंपी गई. सत्ता कि अपनी पहली पारी में मनमोहन सरकार ने जनहित(किसानों की कर्जमाफी, छठा वेतन आयोग, ग्रामीण विकास रोजगार योजना आदि) के जो कदम उठाये थे उसके बदले जनता ने कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका दिया. लेकिन दूसरी पारी में मनमोहन सरकार घपले घोटालों व भ्रस्टाचार के आगे बैकफुट पर नजर आ रही है. इस बात से जनता में हताशा और निराशा का संचार हो गया. देश में सरकारी तंत्र, व्यवसाइयों, और नेताओं कि तिकड़ी चलते भ्रस्टाचार अपने चरम पर पहुँच गया. यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा की सरकार हरेक काम के लिए रिश्वत का रेट क्यूँ तय नही कर देती. बावजूद इसके सरकार में न तो भारस्टाचार से लड़ने की न तो ईक्षा दिखी और न ही शक्ति. ऐसे में अन्ना हजारे ने भ्रस्टाचार के खिलाफ क्रांति का आगाज किया. अन्ना कि आवाज गूँज बन गई. और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया. और लोकतंत्र दो भागों बट गया. लोक और तंत्र. तंत्र के मुखिया मनमोहन. लोक के मुखिया अन्ना हजारे. लोक के मुखिया ने लोक में नई ऊर्जा और विशवास का संचरण किया. तंत्र के मुखिया ने लोक की भावनाओं को आहत किया. खैर अंत भला तो सब भला. लेकिन प्रधानमंत्री को परिवार और पार्टी से आगे निकल कर देश के १२१ करोड जनता कि भावनाओं का भी ख़याल रखना चाहिए.