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Monday, April 18, 2011

प्रधानमन्त्री जी आप को जन भावनाओं का भी ख्याल रखना चाहिए....


प्रधानमन्त्री पर अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि वे स्वविवेक से नही बल्कि रिमोट कनट्रोल से चलते हैं. और रिमोट संप्रग अध्यक्ष सोनिया गाँधी के पास है. उनकी ही मर्जी का पालन प्रधानमंत्री का एक मात्र परमकर्त्तव्य और परमधर्म है. ये बात निराधार नही है. इस बात का गवाह है नई दिल्ली का जंतर-मंतर धरना स्थल. भ्रस्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे आमरण अनसन पर थे. उनके साथ प्रत्यक्ष रूप से हजारों व अप्रत्यक्ष रूप लाखों करोड़ों लोग जुड़े थे. सिर्फ इस देश  में रहने वाले लोग ही नही बल्कि विदेशों में रहने वाले भारतीय जन भी इस मुहीम से जुड़े थे. लेकिन केंद्र सरकार दो तीन दिनों तक ऐसा व्यवहार करती रही जैसे उसे न तो अन्ना हजारे कि फिक्र है और न ही उनके साथिओं और समर्थकों की. जब जनमानस के भारी दबाव के चलते जब संप्रग का सिंहासन डोलने लगा तब सोनिया गाँधी कि संवेदनशीलता जगी. फिर संवेदनशीलता का यह प्रवाह प्रधानमंत्री तक पंहुचा. वह तुरंत हरकत में आये. और आनन-फानन में जननायक बन चुके अन्ना हजारे कि मांग को फौरी तौर पर मान लिया गया.

लोकपाल विधेयक की दशा-दिशा तय करने के लिए मंत्रिओं और गैर सरकारी सदस्यों वाली साझा समिति के गठन कि अधिसूचना जारी कर दी गई. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोक की जीत हुई और तंत्र विवश हो घुटनों पर आ गिरा.इस सम्पूर्ण घटनाक्रम के दौरान एक बात एक बात स्वतःसिद्ध हो गई कि प्रधानमंत्री जी संप्रग अध्यक्ष सोनिया गाँधी द्वारा नियंत्रित रिमोट द्वारा ही चलते हैं. आज के युग में स्वामिभक्ति और वफादारी में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह का कोई सानी नही है. इनके इस समर्पण को हमारा सलाम. लेकिन दुःख इस बात का है कि इस समर्पण में प्रधानमंत्री यह भूल गए कि वह इस देश के प्रधानमंत्री हैं न की कांग्रेस पार्टी और संप्रग के. हालांकि देश के विकाश में मनमोहन सिंह के व्यक्तिगत योगदान को भुलाया नही जा सकता.बात तब की है जब वह सन १९९१ में नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में वित्त मंत्री बने. सन् १९९१  में जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत डावांडोल थी और भारत दिवालिएपन के कगार पर था. वो प्रख्यात अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को अपनी कैबिनेट में वित्त मंत्री बनाकर ले आए जिस पर कई लोगों को हैरानी भी हुई. लेकिन मनमोहन सिंह ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारा बल्कि उदारीकरण की राह प्रशस्त की और भारतीय बाज़ार को खोल दिया. यही वजह है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह को भारत में आर्थिक उदारीकरण का जनक माना जाता है.

इसके पहले तक भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वैसे वित्त मंत्री बनने से पहले भी उनका नाम लोगों के लिए नया नहीं था. वित्त मंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह भारत के केंद्रीय बैंक- भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर थे और उनका नाम नोटों पर रहा करता था. १९९६ में नरसिंह राव के सत्ता से जाते-जाते भारतीय अर्थव्यवस्था न केवल पटरी पर आ गई बल्कि उसने गति भी पकड़नी शुरू कर दी. जब सन् २००४ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो सरकार की कमान मनमोहन सिंह को सौंपी गई. सत्ता कि अपनी पहली पारी में मनमोहन सरकार ने जनहित(किसानों की कर्जमाफी, छठा वेतन आयोग, ग्रामीण विकास रोजगार योजना आदि) के जो कदम उठाये थे उसके बदले जनता ने कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका दिया. लेकिन दूसरी पारी में मनमोहन सरकार घपले घोटालों व भ्रस्टाचार के आगे बैकफुट पर नजर आ रही है. इस बात से जनता में हताशा और निराशा का संचार हो गया. देश में सरकारी तंत्र, व्यवसाइयों, और नेताओं कि तिकड़ी चलते भ्रस्टाचार अपने चरम पर पहुँच गया. यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा की सरकार हरेक काम के लिए रिश्वत का रेट क्यूँ तय नही कर देती. बावजूद इसके सरकार में न तो भारस्टाचार से लड़ने की न तो ईक्षा दिखी और न ही शक्ति. ऐसे में अन्ना हजारे ने भ्रस्टाचार के खिलाफ क्रांति का आगाज किया. अन्ना कि आवाज गूँज बन गई. और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया. और लोकतंत्र दो भागों बट गया. लोक और तंत्र. तंत्र के मुखिया मनमोहन. लोक के मुखिया अन्ना हजारे. लोक के मुखिया ने लोक में नई ऊर्जा और विशवास का संचरण किया. तंत्र के मुखिया ने लोक की भावनाओं को आहत किया. खैर अंत भला तो सब भला. लेकिन प्रधानमंत्री को परिवार और पार्टी से आगे निकल कर देश के १२१ करोड जनता कि भावनाओं का भी ख़याल रखना चाहिए.        
               

Thursday, March 10, 2011

बेबसी मस्जिद के मीनारों को तकती रह गयी..






कुछ तस्वीरें हमारे सामने हैं....पहली ये जो कतार में बैठे लोग हैं...हाथ में कटोरा लिए, और लबपे बिलकुल प्रोफेसनल दुआ सजाये हुए हैं. अगर आप किसी लड़की/लड़के के साथ हैं तो फिर ये आपकी जोड़ी उससे मिला देते हैं.चाहे वो आपकी बहन/भाई/दोस्त ही क्यों न हो..अगर आप अकेले हैं और स्टूडेंट टाइप के हैं तो ये आप को भरोसा दिलाते हैं कि ऊपर वाले कि रहमत से आप की जोड़ी बन जायेगी. आपको सुन्दर लड़की/लड़का मिलेगी मिलेगा.. लेकिन बदले में आप इनके कटोरे में खनक पैदा करें...

अपने कटोरे का वजन बढ़ाने के लिए ये अपने ग्राहकों को तरह तरह के प्रलोभन देते हैं मसलन खूब तरक्की करो ..पैसा कमाओ ...लक्ष्मी धन का भंडार भरें...अच्छे नम्बर से पास हो ...अच्छी दुल्हन/दूल्हा मिले वैगेरह-वैगरह....अगर इसपर भी नही माने तो इक और लालच...गरीब,दुखियारे कि मदद करो बाबा/भगवान तुम्हारी मदद करेगा...अगर आप इस झांसे में नही आये तो...इनकी दुआ को बददुआ तब्दील होते देर नही लगती...और दबी जुबान से ...ब्ला ब्ला ब्ला..
आखिर ब्ला ब्ला क्यों न करे. सवाल पापी पेट का जो ठहरा.इनमे से ज्यादातर हट्टे-कट्टे हैं..जो मेहनत से कोई काम कर सकते हैं और कमा सकते हैं...और उससे अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं...तो फिर ये भिक्षावृत्ति क्यूँ करते हैं..जबकि उन्हें इस काम में तरह तरह के कमेन्ट सुनने पड़ते हैं गालियाँ सुननी पड़ती हैं?फिर भी अपने.ज़मीर को खूँटी पर टांग हाथ में कटोरा लिए निकल पड़ते हैं अपने-अपने बिजनेस पर...
(यहाँ पर भिक्षावृत्ति को बिजनेस इस लिए कहा जा रहा है क्यूँ की कुछ लोगों की तो मजबूरी होती है पर अब ज्यादातर लोगों का पेशा बन गया है ) 



दूसरी तस्वीर इस बुजुर्ग की..जो अपने बिजनेस पर हैं...जो अपनी दूकान सजाये बैठा हुआ है..उम्र करीब ७५ वर्ष..नाम भगत..पेशे से ये मोची. इक बूढी पत्नी..समेत सात लोगों का खर्चे का बोझ इनके ऊपर हैं...दिन के १२ बजने को हैं लेकिन अभी तक बोहनी नही हुई है...इन्हें अभी अपनी पहली बोहनी का इन्तजार है...इनकी आँखे रास्ते से गुजरने वाले हर बंदे को आशा से देख रही हैं.....कोई तो ग्राहक आये..जिसके जूते चमका कर(मेहनत कर) ये अपना तथा अपने परिवार के लिए दो जून कि रोटी का इंतजाम कर सके..दिन भर काम कर बमुश्किल से ५० -६० रूपये कमा पाते हैं...लोग इस रस्ते से गुजरते जा रहे हैं...किसी की  नजर इस मजबूर पर नही पड़ रही है..भगत से कुछ कदम बैठे भिखारियों के कटोरों में सिक्कों का वज़न बढ़ता जा रहा है लेकिन भगत की अभी तक बोहनी नही हुई..भगत हट्टे–कट्टे नही हैं. लेकिन उम्र के इस पड़ाव में होकर भी हान्ड़तोड़ मेहनत जरूर कर रहे हैं...इस मेहनत का नतीजा आप के सामने हैं...
लोग भिक्षावृत्ति क्यों कर रहे हैं? इस बात का उत्तर शायद मिल ही गया......
इस लेख को लिखते समय लगातार मेरे दिमाग में मुन्नवर राना के ये अल्फाज गूँज रहे हैं...


बेबसी मस्जिद के मीनारों को तकती रह गयी  
और मस्जिद भी वफादारों की तकती रह गयी...




Sunday, February 6, 2011

ये मुस्काने क्यों छिटक गयी....


अपने दोस्तों के साथ दैनिक जागरण चौराहे पे खड़ा चाय पी रहा था..कुछ ही दूर पर सड़क किनारे कुछ लोगों 
का मजमा लगा था..मैं भी उत्सुकता बस वहां पहुंचा..दो नन्हे बच्चे खेल तमासा दिखा रहे थे...
लोग जमीन पर रखे कटोरे में सिक्का डाल रहे थे...तो कुछ बिना डाले चले जा रहे थे..लगभग आधे घंटे बाद 
खेल खत्म हुआ.....भीड़ छटने लगी थी..अब सिर्फ वही दोनो बचे थे..मेरे दिमाग में कुछ चल रहा था...मै उनके 
पास गया और बड़ी मुश्किल से कुछ बात कि....
 
 मै घर वापस आया लेकिन मेरे जेहन में कुछ बात चल रही थी...मै उन बच्चों के बारे में सोच रहा 
था...मासूम कन्धों पर कितना बोझ..... ...पेट कि आग क्या क्या नही कराती.....

यह गोपी है.ये अपने माता-पिता और चार 
भाई-बहनों के साथ रहता है.एक वर्ष पहले इसके पिता को लकवा 
पड़ा था..तब से वह काम करने के काबिल नही बचे और तब से वह 
बिस्तर में ही पड़े रहते है..गोपी की माता दूसरे घरों में बर्तन धोती 
हैं.
और महीने में दो हज़ार रुपये कमाती हैं.परन्तु यह रकम सात लोगों   
के परिवार का खर्चा चलाने के लिए काफी नहीं थे अतः परिवार 
चलाने कि जिम्मेदारी श्याम के मासूम कंधे पर आ गयी.
इस काम में उसका हाथ बटाती है उसकी छोटी बहन छुटकी..

 इन दोनों को अपना स्कूल छोड़ना पड़ा और पैसों की खातिर इन्हें  अपना बचपन कुर्बान करना पड़ा..
आज ये सड़क पर खेल तमाशा करते है और बदले में जो पैसा पाते हैं उससे घर का खर्चा चलता है...
ये दोनों पेट की आग बुझाने के लिए करतब दिखाते हैं..गरीबी बचपन को किस कदरकुचल देती है इसका ताज़ा 
गवाह है गोपी और छूटकी....

बचपन अरमानों, ख्वाबों ख्वाहिसों का बसेरा होता है..अल्हड़ता,ईमानदार शरारतें ये सब बचपन के लक्षण होते हैं.
बेफिक्री,बेख्याली अगर बचपन में न हो तो फिर बचपन कहा रह गया.. यूँ तो मासूम बचपन दुनिया के झमेले 
से दूर रहता है ज़रा सोचिये अगर इसी बचपने में कमाने का बोझ हो जाये तो फिर क्या बीतेगी इन मासूम 
कन्धों पर..और फिर कहाँ रह जायेगा बचपना....यह कड़वा सच केवल गोपी और छुटकी की ही नहीं है. यह दास्ताँ  
 उन करोड़ों बच्चों की है जिनका बचपन गरीबी के कारण अंधकारमय हो गया है और मज़बूरन उन्हें 
भिक्षावृत्ति/मज़दूरी करनी पड़ रही है.....
गरीबी के बोझ तले मासूम छुटकी 
वैसे इस सड़क से हर रोज सैकड़ों हजारों ऐसे लोग गुजरते हैं जो एक बार चाह ले तो इनकी तकदीर बदल 
सकते हैं..लेकिन वे क्युं कर ऐसा चाहेंगे...

काले शीशे की बंद गाडिओं में घूमने वाले इन अफसरानों के दिमाग पर कालिख जो पुती हुई है..बड़े बड़े 
सेमिनारों और कार्यक्रमों में ये आदर्श झाड़ते है,.बचपन बचाओ अभियान चलते हैं लेकिन खुद के घर में 
बालश्रम करवाते हैं........

भारतीय संविधान में बहुत से कानून बाल मजदूरी को रोकने के लिए बनाये गए है पर ये संविधान धरातल पर नजर नही आते जरूरत है सच्चाई को देखने और फिर उसे जमीनी स्तर पर लागू करने की,एक संकल्प लेने कीअपने देश कि खातिर,अपने समाज के खातिर……..ज़रा सोचिये ! इन मासूमों के बारे में अंत में बस यही कहना चाहूँगा...



                          ज़रा इन आँखों को देखो 
                          
                         इनमे जाने कैसी लाचारी है
 
                         यह ही भविष्य हैं भारत के?
 
                          यह ही पहचान हमारी हैं?.....


Saturday, February 5, 2011

बस इतनी सी है गुजारिश...


कल मै मोबाइल रिर्चाज कूपन लेने दुकान गया हुआ था..तभी एक बुजुर्ग आये.दुबला पतला शरीर..सांवला रंग..बाल पूरे पके हुए..गाल तो धसे हुए थे लेकिन आँखों में गजब की चमक थी...उन्होंने दुकानदार से कहा भईया हमरे मोबिलिया में पईसा डाले के रहन..डाल दबा का...दुकानदार भौंहें खिचता हुआ..पड जायेगा..किसका चाहिए??....उस बुजुर्ग ने थोडा असहज भाव से मोबाइल उसकी तरफ बढा दिया(शायद उसे नही पता था)...दुकानदार (झल्लाकर)जाने कहाँ से चले आते हैं देहाती....(इस बात पर वहां खड़े कुछ शहरी जो अपने आप को सभ्य और पढ़ा लिखा समझते हैं मुस्कुरा रहे थे)..बडबड़ाते हुए बड़े ही असभ्य तरीके से उसने बुजुर्ग से बात की..खैर उसने ..५० रूपये का रिचार्ज कर दिया..बुजुर्ग ने पैसे दिए..बुजुर्ग के चेहरे पर अब संतुष्टी का भाव था...रिचार्ज करवाकर..वो बुजुर्ग जा चुका था...

दुकानदार की बात...जाने कहाँ से चले आते हैं देहाती..” 
 मुझे चुभ गयी....मैं भी रिचार्ज कूपन लेकर वापस अपने कमरे पर आ गया लेकिन मेरे जेहन में बुजुर्ग का चेहरा और दुकानदार की बातें घूम रही थी...बरबस यूँ ही मुझे बेकल उत्साही कि ये लाइन याद आ गयी-
   
   फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
    गरीब शर्मों हया में हसीं कुछ तो है.

दुकानदार उस बुजुर्ग से उम्र में कितना छोटा है लेकिन उसकी बेअदबी तो देखिये...जाने कहाँ जा रहा है समाज..छोटे बड़ों का अदब और लिहाज मिटता जा रहा है...बदलाव के इस दौर में..व्याहार बदलता जा रहा है..आप भी इस बदलाव को महसूस करते होंगे.....जरा सोचिये दुकानदार के इस व्यवहार से उस बुजर्ग को कितनी तकलीफ हुई होगी.उसके आत्मसम्मान को कितनी ठेस पहुची होगी..अगर दुकानदार उस बुजुर्ग से प्यार से बात करता..तो उस बूढ़े चेहरे पर थोड़ी  खुशी और आत्म विश्वास जरूर देखने को मिलता.  


ये तो एक छोटा सा वाकया है..मैं कई बार देखता हूँ बड़े बड़े अधिकारियों के छोटे छोटे बच्चे अपने से दोगुनी तिगुनी उम्र के अर्दलियों और ड्रायवरों को उनके नाम से बुलाते हैं....कितने कचोटता होगा उन्हें? उनके पढ़े लिखे माँ बाप जो सामाजिक कामों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं और अखबारों में शान से फोटो छपवाते हैं, वो अपने घर में क्यों नहीं देखते?क्यों कभी नहीं सोचते कि उनके बच्चे उनके अधीन काम कर रहे  लोगों को अगर भैया, दादा कहकर पुकारें..

अगर वे ऐसा करते हैं!..तो अपने पढ़े लिखे होने का सबूत तो देंगे ही और सबसे बड़ी बात यह कि किसी के आत्म सम्मान को बरकरार भी रखेंगे!.....और इस व्यवहार से लोगों को खुशी भी मिल जायेगी..


 जो माँ बाप दुनिया के भूगोल, इतिहास, विज्ञान के बारे में बच्चों को बड़ी बड़ी बातें सिखाना चाहते हैं...वे इंसानियत का पाठ पढाना क्यों भूल जाते हैं! कई बार लगता है जैसे अमीरी के साइड इफेक्ट के रूप में गुरूर और अहम् अपने आप चला आता है!...एक गुजारिश  है कि अमीरी/शहरीपन का चश्मा निकालकर दिल के दरवाजे खोलिए...इंसानियत को तरजीह दीजिए...बिना एक भी पैसा खर्च किये सिर्फ अपने व्यवहार से भी किसी को ख़ुशी दी जा सकती है! लेकिन इसके  जरूरत है एक पहल की वो करना होगा हमे और आपको.....और हाँ

              चाहे बंद हो दरवाज़ा,
              
                  लेकिन
 
                रौशनी की तरह
 
                 ख़ुशी को भी
 
              अन्दर आने के लिए
 
         सिर्फ एक दरार ही काफी है...