Friday, February 18, 2011

खास दिल चाहिए?...


हेल्लो दोस्त
प्यार का मौसम अपने पूरे शबाब पर है.हर दिल को एक दिल कि तलाश है.किसी कि तलाश खत्म हो चुकी है तो किसी 
कि नही .और वो भटक रहे हैं..एक खास दिल कि तलाश में उस दिल कि तलाश में जो अपनी धडकन कि लय उसके 
धडकन कि लय से मिला सके .जिसमे अपनेपन का एहसास हो,जो सुख दुःख में साथ हो ....



यूँ तो इन दिनों दिल का बाजार
(बाजार इस लिए चूँकि आज 
कल प्यरा में जजबात से ज्यादा जेब महत्व रखता है) 
काफी गर्म है..अगर आप थोडा सा फिट हैं तो मामला हिट 
समझिए.आप के लिए कदम कदम पर दिल के तोहफे पेश 
किये जा सकते हैं....लेकिन आपको अगर खास दिल कि 
तलाश है तो ऐसा दिल पाने के लिए थोड़े सब्र कि जरूरत होती है..क्यूँ कि
               हर किसी को जगह मिलती नही किसी के दिल में
               किस्मत वालों को पनाह मिलती है किसी के दिल में
प्यार के इस गुलाबी मौसम में हर तरफ प्यार का खुमार सर चढ के बोल रहा है..हर कोई सच्चे दिल का वेट कर रहा है...
                          
प्यार आयेगा.. 
   उसके आते ही 
       आसमान पर  
           गुलाबी बादल छायेंगे.
                 खुशिओं कि बारिश होगी..
                         और सारी धरती  
                             प्यार की बारिस में सराबोर हो जायेगी....

एक समस्या यहाँ आ जाती है हर किसी को सच्चा दिल चाहिए.उन्हें दुसरे दिल में सच्चाई, इमानदारी, मोहब्बत,  
मासूमियत, रहमदिली जैसे गुणों कि चाह होती है...और मजे कि बात यह कि दूसरा भी यही चाह रखता है...दोनों कि 
चाह तो एक होती है लेकिन ये गुण सिर्फ वे दूसरों में ही चाहते हैं खुद के लिए जरूरी नही समझते हैं...असली लोचा तो 
लोचा यहीं पर हो जाता है...
इस दुनिया में हर चीज को टिकाऊ व अच्छा बनाने का कोई न कोई नुस्खा इजाद कर लिया गया है लेकिन प्यार भरा 
और सच्चा दिल पाने का कोई ठोस उपाय नही हो पाया है...
हर मा बाप को अपने बच्चे में सरवन कुमार वाला दिल चाहिए.
हर पति को अपने पत्नी में सावित्री वाला दिल चाहिए.
बच्चों को मा बाप का दोस्ती भरा दिल चाहिए.
तो हर पत्नी को पति में प्रेमी वाला दिल चाहिए.
हर प्रेमिका को अपने प्रेमी में श्री कृष्ण वाला दिल चाहिए तो हर प्रेमी को रह वाला दिल चाहिए..
पर अफ़सोस न कोई श्री कृष्ण जैसा दिल रखना चाहता है और न ही कोई राधा सामान दिल कि मालकिन बनना चाहती 
है...
पत्नी के दिल को पति को कोसने के आलावा कुछ नही आता पति के दिल को गुस्सा व अनदेखी करने के आलावा कुछ 
नही आता.कहने का मतलब बस इतना है कि हर किसी को दुसरे का दिल ,एक आदर्श रूप में चाहिए .अपने दिल में चाहे
जिस कदर का लालच, बेवफाई, क्रूरता और चालाकी भरी हो पर दुसरे के दिल में मिठास होना चाहिए समर्पण होना चाहिए.
इतने बतकूचन का सिर्फ इतना सा मतलब है कि आज हर किसी को आदर्श दिल चाहिए .सच्चा प्यार चाहिए..जो सिर्फ 
उनके लिए समर्पित रहे वफादार रहे सच्चा रहे...पर बदले में वे????? लेकिन भईया ऐसा कहाँ होता है एक हाथ से ताली 
थोड़े ही बजती है...आदर्श दिल पाने का सिर्फ एक ही रास्ता है अपने अपने दिल को पूरे जतन के साथ सवारें-सुधारें सच्चा 
बनाइये.जैसा दिल चाहिए ठीक वैसा दिल अपना बनाइये..तभी जाकर आपको खास दिल पाने कि चाहत पूरी होगी...जरूर 
पूरी होगी...   


       

Thursday, February 17, 2011

जिंदगी ,बोले तो सबसे बड़ी गुरु....



प्रसिद्ध विद्वान अरस्तु ने कहा था कि मनुष्य एक सामजिक जानवर है.मनुष्य भला जानवर कैसे हो सकता है.हमारे पास सोचने कि छमता है..आविष्कार करने कि छमता है . सीखने कि छमता है . हम भला हम जानवर कैसे हो सकते हैं. जानवर तो ऐसा नही कर सकते हैं...तो फिर क्या सोच इस महान विद्वान ने ये बात कही कि मनुष्य सामाजिक जानवर होता है....
जरा गौर करिये हममें और जानवरों में क्या फर्क है...हम हममें सोचने छमता होती है.क्या जानवरों में नही होती ? हम सीख सकते हैं..जानवरों में भी सीखने कि छमता होती है.हम अपनी सुविधा के लिए तमाम आविष्कार कर सकते है ..जानवर भी अपनी सुविधा के लिए आविष्कार कर लेते हैं..हम हम दुःख दर्द खुशी प्यार का अनुभव कर सकते है जानवर भी करते है.हम संत्त्नोत्पत्ति करते है जानवर भी करते हैं...जब सब कुछ सामान है तो आखिर क्या चीज है जो हम मनुष्यों को जानवरों से अलग करती है???
......ये हैं हमारे संस्कार,अच्छे बुरे का फर्क,सिर्फ अपना ही नही अपितु औरों का भी ख्याल रखना,अदब,लिहाज,और समाज निर्माण में रचनात्मक सहयोग...जिसे हम मनुष्यता या इंसानियत भी कह सकते है.यही इंसानियत ही हमें जानवरों से अलग बनाती है.
हमें जानवर से इसान बनाने का काम करते हैं हमारे गुरुजन.जो जिंदगी के हर मोड पर अपनी भूमिका निभाते है और हमें इंसान बनाते है....आप सोच रहे होंगे कैसे? तो भाई जरा पीछे मुड के देखो..जब इस दुनियां में आये थे तब क्या सूट बूट पहन कर आये थे??क्या खाना है?? क्या बोलना है ??आप को पता था ! आप को चलना आता था?? नही न ! ये सब है जिसने सिखाया वो हैं हमारे पहले गुरुजन हमारे माता-पिता..फिर हम थोड़े बड़े हुए स्कूल जाना शुरू किया वह हमें हाथ पकड़ कर लिखना सिखाया गया..पढ़ना सिखाया गया.मैनर सिखया गया...ये सिलसिला कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी..फिर जॉब या बिजनेस तक चलता रहता है.जीवन के हर मोड पर जब हम बिखराव महसूस करते है...तब जो शख्सियत हमें सवारती है..वो गुरु ही है ...
हम सब कि जिंदगी में गुरुजनों का बड़ा योगदान होता है.

माँ हमारा पहला गुरु है.
पिता और माता द्वारा दिए गए संस्कार हमारे जीवन को सही दिशा देते हैं.
स्कूल और कॉलेज के गुरु ज्ञान के दरवाजे हमारे लिए खोलते हैं.

लेकिन जिंदगी से बड़ी युनिवर्सिटी कोई नही जिसका हर दिन उगने वाला सूरज हमें कुछ न कुछ नया देता है और हम अपने संस्कार के आधार पर उसे बना या बिगाड सकते हैं....

हमारे मुकल सर का भी यही मानना है..सर भी कहते हैं बेटा जिंदगी सबसे बड़ी गुरु है इसके शागिर्द बनो जीवन खुद में संगीत बन जायेगी और तुम रॉक करोगे..आप का क्या कहना है?

Monday, February 7, 2011





                  मै अक्सर खामोश रहता हूँ.
                दुनियां के पेचोंखम से दूर रहता हूँ.

           वो सख्स जिसे मैंने टूट कर चाहा जिंदगी कि तरह.
               उसने मेरे दिल के टुकड़े टुकड़े कर दिए..
                          
                         इसलिए

            अब मै इस चाहत के झमेले से दूर रहता हूँ..

                  मै अक्सर खामोश रहता हूँ.
                    मुझे शोर पसंद नही.

                    दिल मेरा शोर करता है..
           टुकड़ों को फिर से जोड़ने कि कोशिश करता है..
       इसलिए अब मैंने दिल कि बातों को सुनना छोड दिया है..


                   मै अक्सर खामोश रहता हूँ
                      फजायें शोर करती हैं..

                फिजाओं में उसी के तराने गूंजते हैं..
                     
                          इसलिए
                          अब मैंने
                 फजाओं में निकलना छोड दिया है..

                  अब मै अक्सर खामोश रहता हूँ
                      धडकने शोर करती हैं

                      मुझे शोर पसंद नही
                     धडकनों पर जोर नही
                          इसलिए
              धडकने थम जाएँ रब से ये दुआ मानता हूँ...
..........................................................................................


आज दिल फिर उदास है.लाख चाहने के बावजूद मै उसे भूल नही पा रहा हूँ...मुझे बस उसी का 
ख्याल आ रहा है..उसकी भोली सूरत..उसकी बातें..उसकी मासूम शरारतें...यूँ तो मै अक्सर खुद 
को संभाल लेता हूँ लेकिन आज टूट के बिखर जाना चाहता हूँ.किसी के काँधे पर सर रखकर जी 
भर रोना चाहता हूँ......
    

 नोट-ये जज्बात मेरे प्रिय मित्र टिंकू के हैं.....

Sunday, February 6, 2011

ये मुस्काने क्यों छिटक गयी....


अपने दोस्तों के साथ दैनिक जागरण चौराहे पे खड़ा चाय पी रहा था..कुछ ही दूर पर सड़क किनारे कुछ लोगों 
का मजमा लगा था..मैं भी उत्सुकता बस वहां पहुंचा..दो नन्हे बच्चे खेल तमासा दिखा रहे थे...
लोग जमीन पर रखे कटोरे में सिक्का डाल रहे थे...तो कुछ बिना डाले चले जा रहे थे..लगभग आधे घंटे बाद 
खेल खत्म हुआ.....भीड़ छटने लगी थी..अब सिर्फ वही दोनो बचे थे..मेरे दिमाग में कुछ चल रहा था...मै उनके 
पास गया और बड़ी मुश्किल से कुछ बात कि....
 
 मै घर वापस आया लेकिन मेरे जेहन में कुछ बात चल रही थी...मै उन बच्चों के बारे में सोच रहा 
था...मासूम कन्धों पर कितना बोझ..... ...पेट कि आग क्या क्या नही कराती.....

यह गोपी है.ये अपने माता-पिता और चार 
भाई-बहनों के साथ रहता है.एक वर्ष पहले इसके पिता को लकवा 
पड़ा था..तब से वह काम करने के काबिल नही बचे और तब से वह 
बिस्तर में ही पड़े रहते है..गोपी की माता दूसरे घरों में बर्तन धोती 
हैं.
और महीने में दो हज़ार रुपये कमाती हैं.परन्तु यह रकम सात लोगों   
के परिवार का खर्चा चलाने के लिए काफी नहीं थे अतः परिवार 
चलाने कि जिम्मेदारी श्याम के मासूम कंधे पर आ गयी.
इस काम में उसका हाथ बटाती है उसकी छोटी बहन छुटकी..

 इन दोनों को अपना स्कूल छोड़ना पड़ा और पैसों की खातिर इन्हें  अपना बचपन कुर्बान करना पड़ा..
आज ये सड़क पर खेल तमाशा करते है और बदले में जो पैसा पाते हैं उससे घर का खर्चा चलता है...
ये दोनों पेट की आग बुझाने के लिए करतब दिखाते हैं..गरीबी बचपन को किस कदरकुचल देती है इसका ताज़ा 
गवाह है गोपी और छूटकी....

बचपन अरमानों, ख्वाबों ख्वाहिसों का बसेरा होता है..अल्हड़ता,ईमानदार शरारतें ये सब बचपन के लक्षण होते हैं.
बेफिक्री,बेख्याली अगर बचपन में न हो तो फिर बचपन कहा रह गया.. यूँ तो मासूम बचपन दुनिया के झमेले 
से दूर रहता है ज़रा सोचिये अगर इसी बचपने में कमाने का बोझ हो जाये तो फिर क्या बीतेगी इन मासूम 
कन्धों पर..और फिर कहाँ रह जायेगा बचपना....यह कड़वा सच केवल गोपी और छुटकी की ही नहीं है. यह दास्ताँ  
 उन करोड़ों बच्चों की है जिनका बचपन गरीबी के कारण अंधकारमय हो गया है और मज़बूरन उन्हें 
भिक्षावृत्ति/मज़दूरी करनी पड़ रही है.....
गरीबी के बोझ तले मासूम छुटकी 
वैसे इस सड़क से हर रोज सैकड़ों हजारों ऐसे लोग गुजरते हैं जो एक बार चाह ले तो इनकी तकदीर बदल 
सकते हैं..लेकिन वे क्युं कर ऐसा चाहेंगे...

काले शीशे की बंद गाडिओं में घूमने वाले इन अफसरानों के दिमाग पर कालिख जो पुती हुई है..बड़े बड़े 
सेमिनारों और कार्यक्रमों में ये आदर्श झाड़ते है,.बचपन बचाओ अभियान चलते हैं लेकिन खुद के घर में 
बालश्रम करवाते हैं........

भारतीय संविधान में बहुत से कानून बाल मजदूरी को रोकने के लिए बनाये गए है पर ये संविधान धरातल पर नजर नही आते जरूरत है सच्चाई को देखने और फिर उसे जमीनी स्तर पर लागू करने की,एक संकल्प लेने कीअपने देश कि खातिर,अपने समाज के खातिर……..ज़रा सोचिये ! इन मासूमों के बारे में अंत में बस यही कहना चाहूँगा...



                          ज़रा इन आँखों को देखो 
                          
                         इनमे जाने कैसी लाचारी है
 
                         यह ही भविष्य हैं भारत के?
 
                          यह ही पहचान हमारी हैं?.....


Saturday, February 5, 2011

बस इतनी सी है गुजारिश...


कल मै मोबाइल रिर्चाज कूपन लेने दुकान गया हुआ था..तभी एक बुजुर्ग आये.दुबला पतला शरीर..सांवला रंग..बाल पूरे पके हुए..गाल तो धसे हुए थे लेकिन आँखों में गजब की चमक थी...उन्होंने दुकानदार से कहा भईया हमरे मोबिलिया में पईसा डाले के रहन..डाल दबा का...दुकानदार भौंहें खिचता हुआ..पड जायेगा..किसका चाहिए??....उस बुजुर्ग ने थोडा असहज भाव से मोबाइल उसकी तरफ बढा दिया(शायद उसे नही पता था)...दुकानदार (झल्लाकर)जाने कहाँ से चले आते हैं देहाती....(इस बात पर वहां खड़े कुछ शहरी जो अपने आप को सभ्य और पढ़ा लिखा समझते हैं मुस्कुरा रहे थे)..बडबड़ाते हुए बड़े ही असभ्य तरीके से उसने बुजुर्ग से बात की..खैर उसने ..५० रूपये का रिचार्ज कर दिया..बुजुर्ग ने पैसे दिए..बुजुर्ग के चेहरे पर अब संतुष्टी का भाव था...रिचार्ज करवाकर..वो बुजुर्ग जा चुका था...

दुकानदार की बात...जाने कहाँ से चले आते हैं देहाती..” 
 मुझे चुभ गयी....मैं भी रिचार्ज कूपन लेकर वापस अपने कमरे पर आ गया लेकिन मेरे जेहन में बुजुर्ग का चेहरा और दुकानदार की बातें घूम रही थी...बरबस यूँ ही मुझे बेकल उत्साही कि ये लाइन याद आ गयी-
   
   फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
    गरीब शर्मों हया में हसीं कुछ तो है.

दुकानदार उस बुजुर्ग से उम्र में कितना छोटा है लेकिन उसकी बेअदबी तो देखिये...जाने कहाँ जा रहा है समाज..छोटे बड़ों का अदब और लिहाज मिटता जा रहा है...बदलाव के इस दौर में..व्याहार बदलता जा रहा है..आप भी इस बदलाव को महसूस करते होंगे.....जरा सोचिये दुकानदार के इस व्यवहार से उस बुजर्ग को कितनी तकलीफ हुई होगी.उसके आत्मसम्मान को कितनी ठेस पहुची होगी..अगर दुकानदार उस बुजुर्ग से प्यार से बात करता..तो उस बूढ़े चेहरे पर थोड़ी  खुशी और आत्म विश्वास जरूर देखने को मिलता.  


ये तो एक छोटा सा वाकया है..मैं कई बार देखता हूँ बड़े बड़े अधिकारियों के छोटे छोटे बच्चे अपने से दोगुनी तिगुनी उम्र के अर्दलियों और ड्रायवरों को उनके नाम से बुलाते हैं....कितने कचोटता होगा उन्हें? उनके पढ़े लिखे माँ बाप जो सामाजिक कामों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं और अखबारों में शान से फोटो छपवाते हैं, वो अपने घर में क्यों नहीं देखते?क्यों कभी नहीं सोचते कि उनके बच्चे उनके अधीन काम कर रहे  लोगों को अगर भैया, दादा कहकर पुकारें..

अगर वे ऐसा करते हैं!..तो अपने पढ़े लिखे होने का सबूत तो देंगे ही और सबसे बड़ी बात यह कि किसी के आत्म सम्मान को बरकरार भी रखेंगे!.....और इस व्यवहार से लोगों को खुशी भी मिल जायेगी..


 जो माँ बाप दुनिया के भूगोल, इतिहास, विज्ञान के बारे में बच्चों को बड़ी बड़ी बातें सिखाना चाहते हैं...वे इंसानियत का पाठ पढाना क्यों भूल जाते हैं! कई बार लगता है जैसे अमीरी के साइड इफेक्ट के रूप में गुरूर और अहम् अपने आप चला आता है!...एक गुजारिश  है कि अमीरी/शहरीपन का चश्मा निकालकर दिल के दरवाजे खोलिए...इंसानियत को तरजीह दीजिए...बिना एक भी पैसा खर्च किये सिर्फ अपने व्यवहार से भी किसी को ख़ुशी दी जा सकती है! लेकिन इसके  जरूरत है एक पहल की वो करना होगा हमे और आपको.....और हाँ

              चाहे बंद हो दरवाज़ा,
              
                  लेकिन
 
                रौशनी की तरह
 
                 ख़ुशी को भी
 
              अन्दर आने के लिए
 
         सिर्फ एक दरार ही काफी है...

Friday, February 4, 2011

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें...





शाम को छज्जे पर खड़ा म्यूजिक सुन रहा था...आज मन थोडा परेशान सा है..एक अजब सी ख़ामोशी और उदासी छाई है मन पर.पता नही क्यु?आज बस आसमान निहारने को जी चाह रहा है.अपने आप को बहलाने की नाकामयाब कोशिश कर रहा था..जाने क्या सोच रहा था खुद को पता नही.आज मेरे ऊपर म्यूजिक का भी कुछ असर नही हो रहा.
 मै अपने ही रंग में डूबा हुआ.खुद को भुलाकर अनजाने ख्यालों में डूबा हुआ अपनी गुमनाम परेशानियों से परेशान आसमान में टकटकी लगाये खड़ा था..तेज आवाज़ में मुजिक चल रहा था लेकिन मुझे जैसे कुछ सुनाई ही नही दे रहा था.मुझे ऊबन हो रही थी.मैंने म्यूजिक बंद कर दिया...अब फिर छज्जे पर आकर खड़ा हो गया...इतने में देखता हूँ की एक छोटा बच्चा चेहरे पर मुस्कराहट लिए मेरी ओर देख रहा है! मेरे पड़ोस के जो स्लम एरिये का जान पड़ता है.....उसके मैले फटे कपडे देखकर मैं अंदाजा लगा सकता हूँ!

मैं आँखें उचका कर पूछता  हूँ " क्या है ?  क्या चाहिए ?" बच्चा थोडा बेतकल्लुफ होकर झिझकते हुए कहता है " एक बार गाना बजाओगे मुझे सुनना है.. सुनाओगे ?" " मुझे पहले तो गुस्सा आता है लेकिन फिर हँसी भी....कौन सा गाना?" बच्चा करीब आकर कहता है " अभी जो बज रहा था, ...पल पल न माने टिंकू जिया., मुझे बहुत पसंद है!" ओह उस गाने की बात कर रहा था जो मै अभी सुन रहा था ...! मैं दो बार गाना बजा कर सुनाता हूँ.उन बच्चों की थिरकन से सारा मोहल्ला गुलजार हो गया....वो बहुत खुश थे !गाना सुनकर, मुझे बाय
करके, वो बच्चा अपने चिल्लर पार्टी के साथ निकल जाता है!..अब मेरी उदासी भी जा चुकी थी..

 
चिल्लर पार्टी तो चली गयी लेकिन मेरे मन मे ख्यालों के बादल घुमड़ने लगे थे..मै सोच रहा हू  कि ख़ुशी बड़ी-बड़ी चीज़ों कि मोहताज नहीं होती ! एक गाना सुनकर वो बच्चा इतना खुश हो गया! शायद जिंदगी से हमें बहुत ज्यादा नहीं चाहिए होता है...वो तो हर कदम पर हमें गले लगाना चाहती है! हम ही उससे संतुष्ट नहीं होते जो वो हमें देती है!

दूसरी बात जो साथ साथ साथ मेरे दिमाग में चल रही है वो ये कि जिंदगी खुशियाँ बांटने का दूसरा नाम है! दूसरों को थोडी सी ख़ुशी देकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते बल्कि अपने दिल को सुकून से भरते हैं!

किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है! और जहां तक हो सके ये मौका हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए!..उस नन्ही सी जान ने मुझे जिंदगी का एक पाठ पढ़ा दिया.उसकी मुस्कान ने मुझे जो आत्मसंतुष्टी दी ... निदा फाजली की ये लाइनें लगातार जेहन में चल रही है...
 
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं, किसी तितली को न फूलों से उडाया जाए.....






Thursday, February 3, 2011

क्या करूँ यार...


मैंने अपनी लास्ट पोस्ट २९ जनवरी को लिखी थी! उसके बाद कुछ नहीं लिख सका !आज ३ फरवरी हो गई.खुद भी यही समझता रहा और दूसरों को भी यही बताता रहा की आजकल बहुत व्यस्त चल रहा हूँ. इसलिए नहीं लिख पा रहा  हूँ.....आज मैंने महसूस किया की तीन दिन का  पूरा समय निकल गया और मेरे मन में ब्लॉग खोलने का विचार तक नहीं आया!

ऐसा क्यों हुआ......कुछ लिखने का मन ही नहीं हुआ! शायद मैं कुछ समझ नही पा रहा था..आज गुरु जी ने क्लास में मेरी क्लास लगाई......तब जाकर आज लिख रहा हूँ! यार गुरु जी ने कहा की मुझे पेर्सोनालिटी डिसोर्डर की प्रोब है..उन्होंने ऐसा क्यू कहा...अब आप आप ही बताओ मै क्या करू......मै हू ही ही ऐसा??????खैर छोडिये इन सब बातों को....बात लिखने की करते हैं मेरे क्लास में कई लोगों ने ब्लॉग बनाया और सब एक से बढ़ एक लिखय्या...भावना..मनीष..दीपू..अनमता..शुभी..

इन  लोगों को नियमित ब्लॉग लिखते देखता हूँ तो बड़ा सुखद आश्चर्य होता है! भगवान ने ऐसा जूनून मुझे क्यों नहीं दिया! किसी भी चीज़ से बहुत जल्दी उकता जाता हूँ मैं...मन हमेशा कुछ नया करना चाहता है! शायद इसीलिए मैं किसी चीज़ में परफेक्ट नहीं बन पाया ! बहुत कुछ सीखा ...पर सब थोडा थोडा! उसके बाद फिर एक नयी चीज़ की तलाश! मेरे एक दोस्त कहते  है....खुदा का शुक्र है की तू रिश्तों से बोर नहीं होता वरना मेरा तो पत्ता कट चुका होता! सचमुच इश्वर का शुक्र है आज भी मेरे फोरथ क्लास का दोस्त मेरा उतना ही पक्का दोस्त है......हाँ अब संख्या में इजाफा हो चुका है!.........
...गुरु जी कहते हैं की बेटा अपने मन की बात मन में मत रखो...कुछ लिखो!!!!!अब मै क्या लिखूं क्या लिखूं क्या लिखूं???????.....याररर !!!!मन में तो बहुत कुछ है.
...............................................................................................................तो चलो आज से लिखना शुरू...अब मन की बात ब्लॉग पर होगी.......और तकनीकी ने साथ दिया तो हर रोज आप से मुलाकात होगी.....